इस डायरेक्टर ने राजेश खन्ना से शूटिंग के लिए तैयार होने को कहा और बोल दिया- पैक अप!
आज़ादी के बाद बंगाल के लोगों का हिंदी सिनेमा में काफी योगदान रहा। इसका कारण था विभाजन। विभाजन के बाद बहुत से सिनेमा से जुड़े लोग बंगाल से बंबई (मुंबई) आ गए थे। चाहे वो एस डी बर्मन हों, गुरूदत्त हों या बिमल रॉय।
बिमल रॉय की यूनिट में एक लड़का उनके साथ बंबई आया था। ये लड़का धीरे-धीरे यूनिट में एडिटर बन गया। उसने बिमल रॉय की दो बीघा जमीन, देवदास, मां, परिणीता जैसी फिल्में एडिट कीं। बाद में जब वो बड़ा एडिटर बना तो उसके बारे में कहा जाने लगा कि वह शायद मुल्क का सबसे अच्छा एडिटर है। यहां तक कि राज कपूर जैसे बड़े डायरेक्टर अपनी फिल्म एडिट करने के बाद फाइनल कट इस शख्स को दिखाते थे और कहते थे, 'इसमें क्या काटना चाहते हो, बोलो। मैं काट दूंगा।'
राज कपूर जिस शख्स पर इस कदर भरोसा करते थे, उसका नाम है ऋषिकेश मुखर्जी, जो एडिटर से एक दिन बहुत बड़ा डायरेक्टर बना। एक ऐसा डायरेक्टर जिसकी फिल्में मानवीय रिश्तों और जीवन की गहरी बातें बेहद आसानी से कह जाती हैं। जिसके कैरेक्टर बेहद सादगी भरे होते हैं और उनमें ‘नाइस पर्सन’ वाली फीलिंग आती है। बगैर किसी को जलील किए उनकी फिल्मों में पॉजिटिव ह्यूमर झलकता है। इन फिल्मों को देखकर इंसानियत पर भरोसा जगता है।
उन्होंने कुल 43 फिल्में बनाईं लेकिन उनकी कुछ बेहतरीन फिल्में हैं- सत्यकाम, चुपके-चुपके, आनंद, आशीर्वाद, मझली दीदी, गोलमाल, अलाप, अनुपमा, गुड्डी, अभिमान, किसी से ना कहना, नमक-हराम। इनमें 'सत्यकाम' को ऋषि दा अपनी पसंदीदा फिल्म मानते थे।
दिलीप कुमार ने दिया डायरेक्टर बनने का सुझाव
30 सितंबर, 1922 को कलकत्ता में जन्मे ऋषिकेश मुखर्जी से 'देवदास' के दौरान ही दिलीप साहब ने कहा कि तुम्हारा सिनेमैटिक सेंस इतना अच्छा है। तुम डायरेक्टर क्यों नहीं बन जाते?
ऋषि दा बोले मुझे कौन फाइनेंस करेगा। दिलीप साहब ने कहा कि कोई अच्छी कहानी हो तो मुझे सुनाओ। इन सब बातों की चिंता ना करो। ऋषि दा ने उनसे कहा कि इसके लिए आपको एक घर में चलना होगा, क्योंकि वो कहानी वहीं सुनाई जा सकती है। दिलीप साहब वहां गए जहां ऋषिकेश मुखर्जी पेइंग गेस्ट के रूप में रहते थे। उन्होंने दिलीप कुमार से कहा कि मैं एक कहानी दिखाना चाहता हूं, जिसका मुख्य किरदार एक मकान हो और उनमें लोग आते-जाते रहते हों। मैं इन लोगों की कहानियां दिखाना चाहता हूं।
बाद में उन्होंने अपनी पहली फिल्म मुसाफिर (1957) एक मकान को मुख्य किरदार रखते हुए बनाई, जिसमें दिलीप कुमार ने 'पगला बाबू' का किरदार निभाया था। इस मकान में तीन अलग-अलग कहानियां दिखाई गई थीं लेकिन समझने वाले इसे जीवन के तीन चरणों की तरह देखते हैं। जीवन की शुरुआत, संघर्ष और मौत के चरण। आलोचकों ने तो फिल्म को सराहा था पर बॉक्स ऑफिस पर फिल्म नहीं चल पाई लेकिन इससे ऋषि दा की पहचान बतौर डायरेक्टर हो चुकी थी।
ऋषिकेश मुखर्जी
सुपरहिट डायरेक्टर के तौर पर शुरुआत
ऋषिकेश मुखर्जी ने जब दूसरी फिल्म की स्क्रिप्ट लिखी थी, तब भी दिलीप कुमार ने उनसे पूछा था कि कोई कहानी है क्या? ऋषि दा ने ईमानदारी से कह दिया कि कहानी तो है मगर ये मैंने राज कपूर के लिए लिखी है। दिलीप कुमार और राज कपूर दोनों प्रोफेशनल राइवल थे लेकिन अच्छे दोस्त भी थे। दिलीप कुमार ने राज कपूर से कहा कि ऋषि की ये स्क्रिप्ट पढ़ लो। इसके बाद बनी फिल्म 'अनाड़ी' (1959), जो सुपरहिट रही। इस फिल्म के बाद अगली फिल्म ऋषि दा ने देवानंद के साथ की। यह भी रोचक बात है कि उन्होंने तब के तीन सुपरस्टार्स के साथ काम किया था।
'अनाड़ी' के एक सीन में नूतन और राज कपूर
जब राजेश खन्ना से गुस्सा होकर कहा, पैक-अप
ऋषिकेश मुखर्जी का जब भी जिक्र आता है, उनकी फिल्म 'आनंद' का जिक्र होना ही है। असल में ये फिल्म भी ऋषिकेश मुखर्जी ने राज कपूर के लिए लिखी थी लेकिन राज कपूर बहुत व्यस्त हो चुके थे और फिल्म के हिसाब से उनकी उम्र भी ज्यादा हो चुकी थी।
एक दफे जावेद अख्तर, सलीम खान और गुलज़ार राजेश खन्ना के घर गए हुए थे। यहीं पर गुलज़ार साहब ने आनंद की कहानी का हल्का सा जिक्र राजेश खन्ना से किया कि ऋषिकेश मुखर्जी ऐसी फिल्म बनाना चाहते हैं। राजेश खन्ना प्रभावित हो गए। वो खुद ऋषिकेश मुखर्जी के पास गए और कहा- मुझे हर हाल में ये फिल्म करनी है। ऋषि दा ने कहा कि आप तो बहुत व्यस्त रहते हैं और मुझे तुरंत ये फिल्म शुरू करनी है। राजेश खन्ना ने कहा कि मैं दो घंटे के लिए ही सही पर वक्त निकालूंगा और सेट पर आऊंगा पर आप मुझे ये फिल्म करने दें। ऋषि दा मान गए।
'आनंद' का यादगार सीन
ऋषि दा उस वक्त 'आनंद' के साथ 'गुड्डी' फिल्म की भी शूटिंग कर रहे थे। अब अजीब लग सकता है लेकिन तब एक तरफ गुड्डी की शूटिंग होती थी और जब दो घंटे के लिए राजेश खन्ना आते थे तो गुड्डी की शूटिंग रोककर आनंद की शूटिंग होने लगती थी।
ऐसे ही एक बार राजेश खन्ना ने दोपहर 2 बजे से 4 बजे तक का समय दिया। ऋषिकेश मुखर्जी सब कुछ पहले से तैयार रखते थे। उन्हें एडिटिंग का अनुभव था इसलिए रीटेक वगैरह बहुत कम लेते थे। ऐसा कोई शॉट नहीं लेते थे, जिसकी फिल्म में जरूरत ना हो। ऋषिकेश मुखर्जी सेट पर चेस खेलते रहते थे और उस दिन राजेश खन्ना बहुत ज्यादा लेट हो गए। ऋषि दा चुपचाप चेस खेलते रहे लेकिन उनकी धैर्य की सीमा खत्म हो चुकी थी।
राजेश खन्ना आए। ऋषि दा ने कहा कि मेक अप वगैरह कीजिए, कॉस्ट्यूम पहनिए। लाइटिंग वगैरह हो गई। राजेश खन्ना सज-धज के जैसे ही सेट पर आए, ऋषि दा चिल्लाए- पैक अप। बाद में राजेश खन्ना ने माफी मांगी और इसके बाद कभी देर से नहीं आए।
अमिताभ बच्चन को रोल करने से मना किया
आनंद के साथ ही ऋषिकेश मुखर्जी ‘गुड्डी’ भी बना रहे थे। ये जया भादुड़ी (जया बच्चन) की पहली हिंदी फिल्म थी। इससे पहले उन्होंने बांग्ला फिल्मों में काम किया था। इस फिल्म में शुरुआत में तीन रील तक ऋषिकेश मुखर्जी ने अमिताभ बच्चन से शूटिंग करवाई लेकिन बाद में उन्होंने फिल्म में उन्हें ना रखने का फैसला किया और इसकी वजह बहुत असाधारण है। उन्होंने अमिताभ से कहा कि अगर तुम ये फिल्म करोगे और ये फिल्म आनंद के बाद रिलीज होगी तो इससे तुम्हारी इमेज को धक्का लगेगा। ये बहुत पैसिव रोल है। एकदम साधारण। मैं अपना नुकसान उठाकर इस रोल को फिर से शूट करूंगा लेकिन तुम्हें बहुत आगे जाना है।
अमिताभ के साथ ऋषि दा
ऋषिकेश मुखर्जी की बात सही हुई। आनंद में डॉक्टर भास्कर के रोल के लिए अमिताभ की तारीफ हुई लेकिन गुड्डी में उनकी जगह जिस एक्टर को लिया गया वो बहुत सफल नहीं रहे। इसके बाद ऋषिकेश मुखर्जी ने जया और अमिताभ को फिल्म 'अभिमान' (1973) में कास्ट किया और दोनों ने क्या शानदार काम किया। ये ऋषि दा की बेहतरीन फिल्मों में से एक है।
ऋषिकेश मुखर्जी का टोटका
यूं तो ऋषि दा शुभ मुहूर्त और फिल्म से पहले पूजा-पाठ जैसी चीजों पर यकीन नहीं करते थे लेकिन उनका एक जबरदस्त टोटका था। मुकेश के बेटे नितिन मुकेश बताते हैं कि एक बार एक फिल्म के सेट पर महमूद (मशहूर एक्टर और कॉमेडियन) आकर जोर-जोर से चिल्लाने लगे कि ऋषि दा, ये फिल्म नहीं चलेगी। मैं कहता हूं, इस फिल्म को फ्लॉप होना है। सब लोग हक्के-बक्के। तभी ऋषिकेश मुखर्जी आए और महमूद को गले लगाया और दोनों हंसने लगे। बाद में पता चला कि ये ऋषिकेश मुखर्जी का टोटका था। वो मानते थे कि महमूद अगर उनकी फिल्मों के सेट पर आकर जोर-जोर से कहें कि ये फिल्म नहीं चलेगी तो वो फिल्म चल जाती थी।