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23 September 2017

अकबर के समय का एक विकसित राज्य, कैसे बन गया हिंसा और अलगाववाद का गढ़?

- रिषभ

त्रिपुरा में प्रदर्शन कर रहे लोग इतने क्रोध में क्यों आ गये कि एक पत्रकार शांतनु भौमिक की हत्या हो गई? कौन थे ये लोग जो प्रदर्शन कर रहे थे? कौन है ये पार्टी Indigenous People's Front of Tripura (IPFT) जिसका नाम बार-बार आ रहा है? कौन है वो पार्टी Tripura Rajaer Upajati Ganamukti Parishad (TRUGP) यानी त्रिपुरा राजेर उपजाति गणमुक्ति परिषद्, जिसका नाम त्रिपुरा की सरकार के साथ आ रहा है? ये दोनों पार्टियां ट्राइबल्स की हैं फिर आपस में लड़ी क्यों? इस लड़ाई से किसको फायदा हो रहा है? केंद्र सरकार क्या कर रही है? कांग्रेस का क्या रोल है वहां पर? 

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पत्रकार शांतनु भौमिक, जिसकी हत्या कर दी गई

जिस राज्य में महाभारत के वक्त ययाति राज करते थे और जो अकबर के वक्त पीक पर पहुंचा वहां किस बात का मसला है? बार-बार रिफ्यूजियों का नाम आ रहा है। कौन हैं ये त्रिपुरा के रिफ्यूजी? और अलग राज्य त्विप्रालैंड की मांग क्यों हो रही है? त्विप्रा का मतलब तो नदी के पास का एरिया होता है।

त्रिपुरा का इतिहास-भूगोल और समाज

त्रिपुरा का राज्य भारत के सबसे पुराने राज्यों में से एक है। बांग्लादेश, मिजोरम और असम से घिरा हुआ त्रिपुरा भौगोलिक रूप में बांग्लादेश के पूर्वी हिस्सों की तरह ही है। छोटी छोटी पहाड़ियां, नदियां और जंगल हैं। उपजाऊ मैदान हैं। त्रिपुरा का 60 प्रतिशत घना जंगल है। जहां से आना-जाना, हमला करना, पकड़ना, भाग जाना आसान है।

त्रिपुरा में कई एथनिक समुदाय रहते हैं। एथनिसिटी भी गजब चीज है। धर्म से अलग ये चीज लोगों के अपने कल्चर और एक समान दिखने जैसी चीजों पर निर्भर करती है। यहां पर यूरोपाइड, मंगोलाइड, आर्यन, द्रविड़ियन कई समुदाय रहते हैं मतलब चीन, बर्मा, उत्तरी भारत और दक्षिणी भारत सबसे मिलते जुलते लोग हैं। सारे समुदायों की अलग संस्कृति है।

पहाड़ी हिस्सों पर जो लोग सदियों से इकट्ठा होते गये और रहते गए, उनको ट्राइब कहा गया। जो लोग मैदानी भागों से बंगाल की तरफ से आये थे, वो नान-ट्राइब या मैदानी लोग हो गये। ये चीज सबसे ज्यादा ब्रिटिश राज में सामने आई पर ब्रिटिश अफसरों ने सिवाय ये कहने के कि ट्राइबल लोग सीधे-सच्चे होते हैं, समुदायों में मेल मिलाप कराने की कोशिश नहीं की। ये जरूरी था क्योंकि पहाड़ पर रहने वाले अपनी जिंदगी से खुश थे। पर मैदान से जानेवाले वहां बढ़ते गये और इनको आधुनिक दुनिया के रवैयों का ज्यादा पता था तो दोनों में संघर्ष होना लाजिमी हो गया।

आजादी से पहले का त्रिपुरा

1947 से पहले के 500 सालों में त्रिपुरा में 35 राजाओं ने राज किया था। ये सब मानिक्य वंश के थे। अकबर के वक्त ये राज कामरूप यानी असम, अराकान, रंगमती यानी बर्मा और बंगाल के कुछ हिस्सों तक भी फैला था। बाद में मुगलों से लड़ाई के बाद ये राज छोटा होता चला गया। राजाओं ने इसकी भरपाई आदिवासियों पर ज्यादा टैक्स लगाकर करनी शुरू की।

अकबर, फोटो साभार- कल्चर इंडिया

18वीं शताब्दी में यहां के राजा बंगाल के नवाब से हार गये और राज का दक्षिणी हिस्सा बंगाल को चला गया। उसी वक्त बर्मा के राजा ने भी हमला कर कुछ हिस्सा ले लिया। इससे रिफ्यूजी भी पैदा हुए। बर्मा और बंगाल की तरफ से आने वाले लोग यहीं बसने लगे। यहां के राजा ने उनको बसने दिया पर इससे आदिवासियों की जगहें छोटी होने लगीं।

1760 के बाद ब्रिटिश राज ने यहां पर नया सिस्टम लगा दिया। मैदानी इलाकों के लिए राजा को जमींदार बना दिया और पहाड़ी इलाकों के लिए अलग व्यवस्था रखी। राजा के बजाय यहां जमींदारी सिस्टम आ गया। आदिवासियों की समझ से ये बाहर था कि अचानक से कोई बाहर से आकर टैक्स कैसे ले सकता है। मोग समुदाय ने विद्रोह किया पर उसे दबा दिया गया। धीरे-धीरे यहां का राज ब्रिटिश राज के करीब होता गया।

उपनिवेशवाद का दखल

1857 में राजा ने यहां के विद्रोह को कुचलने में ब्रिटिश की मदद भी की। धीरे-धीरे यहां पर होने वाले हर ट्राइबल विद्रोह को बुरी तरह कुचला जाने लगा और उनकी जगहों पर ब्रिटिश सरकार का दखल बढ़ने लगा। उनकी झूम खेती भी बैन कर दी गई। मैदानी इलाकों से लोग बिजनेस करने भी वहां जाने लगे। राजा ने ब्रिटिश व्यापारियों को खुश करने के लिए उनकी हरसंभव मदद की।

1911 से 1921 के बीच बंगाल से कई मुस्लिम व्यापारी और किसान वहां जाकर बस गये। फॉरेस्ट रूल 1903 आया पर ये सबके लिए नहीं था। 12 ट्राइब ऐसी थीं जिनको इस रूल से कुछ नहीं मिला। 1941 में फिर से बंगाल से बहुत सारे रिफ्यूजी वहां पहुंचे। भयानक दंगे हुए पर राजा ने सबको वहां बसा दिया।

1949 तक तीन और बड़े दंगे हुए पर सबको कुचल दिया गया। पद्माबिल के दंगे में देबबर्मा ट्राइब की तीन लड़कियां मरी थीं उनको आज ऐतिहासिक फिगर के रूप में याद करते हैं वो लोग। 

कम्युनिस्ट पार्टी का फैलाव और त्रिपुरा राज्य मुक्ति परिषद का उदय

उस वक्त पूरे देश में स्वतंत्रता संग्राम चल रहा था पर त्रिपुरा एक तरह से अछूता था क्योंकि राजा ब्रिटिश शासन पर निर्भर थे। वहीं बंगाल से आये रिफ्यूजी राजा पर निर्भर थे। ये सारे रिफ्यूजी अकाल, हिंसा से त्रस्त होकर रोजगार की तलाश में आये थे। राजा इनको बसाते जाते क्योंकि ब्रिटिश राज को खफा नहीं करना चाहते थे।

उसी वक्त बंगाल में कम्युनिस्ट पार्टी बहुत तेजी से आगे बढ़ रही थी। इसी के प्रभाव में त्रिपुरा में भी त्रिपुरा राज्य जन मंगोल समिति और त्रिपुरा राज्य गण परिषद नाम की दो पार्टियां बन गईं। सबने पढ़ाई, रोजगार, टैक्स हटाने  की मांग रखी। राजा ने गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट 1935 की तर्ज पर एक्ट लाने की कोशिश भी की पर असफल रहे। फिर दोनों के ही नेताओं को 1945 तक जेल में रखा। द्वितीय विश्वयुद्ध के नाम पर। एक नई पार्टी बन गई। त्रिपुरा राज्य मुक्ति परिषद। इन लोगों ने बहुत तेजी से हर मुद्दा उठाया और फिर खूब झंझट हुआ। अप्रैल 1949 में तो दंगों के बाद इंडियन आर्मी ने भी वहां बहुत कड़ा रुख अपनाया। ट्राइबल्स के खिलाफ बहुत कड़ा एक्शन लिया गया।

देश को आजादी मिली पर त्रिपुरा को पहचान ना मिली

इस बीच 17 मई 1947 को त्रिपुरा के राजा की मौत हो गई तो पूरा शासन इंग्लैंड की क्वीन के नाम पर चलने लगा। फिर देश आजाद हुआ तो राज्यों की बाउंड्री को लेकर दिक्कत होने लगी। रेडक्लिफ बाउंड्री कमीशन ने यहां को लेकर कोई गंभीरता नहीं दिखाई तो यहां पर कोई विकास का मॉडल भी नहीं लागू हुआ क्योंकि कुछ भी पारिभाषित ही नहीं था।

1951 में भारत सरकार ने त्रिपुरा को ग्रुप सी राज्य में डाल दिया मतलब इलेक्टोरल कॉलेज रहेगा पर विधायिका नहीं रहेगी यानी चुने हुए लोग कानून नहीं बना सकते। सरल शब्दों में ये राज्य जैसा नहीं रहेगा। बंगाल का ही हिस्सा रहेगा पर जिस बंगाल से लोग चिढ़ते थे, उसके नाम पर आश्रित रहना मंजूर नहीं था। अलग राज्य की मांग होने लगी।

कम्युनिस्टों का दबदबा और त्रिपुरा को मिला राज्य का दर्जा

1949 में ही कम्युनिस्ट पार्टी और मुक्ति परिषद मिल गये और गुरिल्ला लड़ाई शुरू हो गई। इसमें अंग्रेजी सरकार की त्रिपुरा राइफल्स से छूटे हुए सैनिक भी आ गये। ये लोग बर्मा में लड़े थे। बंगालियों को मनीलेंडर बना दिया गया और ट्राइबल्स के नेता निकले दशरथ देब। 1952 में कम्युनिस्ट त्रिपुरा की दोनों लोकसभा सीट जीत गये पर राज्य तो था नहीं कि सरकार बनाते। 

1949 से 1972 के बीच काफी गहमा गहमी रही त्रिपुरा में। भारत सरकार कभी ये काउंसिल बनाती, कभी इसके केंद्र शासित बना दिया पर किसी से फायदा नहीं हुआ तो 21 जनवरी 1972 को त्रिपुरा को अलग राज्य का दर्जा दे दिया गया।

विस्थापन और अस्तित्व की लड़ाई, जिसमें सत्ता की लड़ाई भी शामिल थी

इस बीच त्रिपुरा में लाखों रिफ्यूजी बाहर से आकर बस गये। 1947 के बाद पूर्वी पाकिस्तान के बनने के बाद लाखों लोग आये थे। फिर 1971 में बांग्लादेश की लड़ाई के बाद लाखों लोग आये। बहुतों को तो बसा दिया गया पर हजारों को ऐसे ही छोड़ दिया गया। प्रशासनिक रूप से ये बहुत मुश्किल काम था। वहीं घटती जमीन को लेकर ट्राइबल्स भी इस चीज से नाखुश हो गये।

त्रिपुरा के ट्राइबल्स. सांकेतिक तस्वीर.

इसी बीच नदियों पर बांध बनने लगे और डंबर में हाइड्रोइलेक्ट्रिक पावर प्रोजेक्ट को लेकर बहुत से ट्राइब्स को विस्थापित भी किया गया। बिना किसी प्लान के। इन सारी विसंगतियों के बीच त्रिपुरा में लगभग हर समुदाय अपनी राजनीतिक पार्टी बनाने लगा। पहले तो अधिकारों को लेकर लड़ाई होती थी पर राज्य बनने के बाद सत्ता की लड़ाई भी सामने आ गई। लेफ्ट पार्टियों का प्रभाव पहले से ही था जो और बढ़ने लगा।

त्रिपुरा लैंड रिफॉर्म एक्ट, 1960 और त्रिपुरा लैंड रिफॉर्म्स एंड रिस्टोरेशन एक्ट 1963 भी आए पर जमीन बराबर नहीं बांटी जा सकी। 1967 में त्रिपुरा उपजाति जुबा समिति बनी जो कि बिल्कुल ट्राइबल हितों की रक्षा के लिए ही बनी। ये लेफ्ट-राइट दोनों किस्म की पार्टियों से अलग थी। अपनी पहचान और अपने अधिकार के लिए लड़ रहे थे ये लोग।

कम्युनिस्टों को चुनौती मिलनी शुरू हुई

1967 तक त्रिपुरा बंगाली रिफ्यूजी स्टेट बन चुका था और यहां पहली बार कम्युनिस्ट लोकसभा की दोनों सीटें हारे। दशरथ देब कांग्रेस के किरीट बिक्रम मानिक्य से हारे। कांग्रेस को रिफ्यूजी वोट मिलने लगे थे। इसी साल दो और राजनीतिक पार्टियां निकलीं। त्रिपुरा उपजाति जुबा समिति। इनका नारा था 'कचक कूफूर चुंग चिया, बुनि ताला तांग्लिया'। मतलब ना तो हम कम्युनिस्ट हैं, ना गोरे हैं बल्कि हम ट्राइबल्स हैं। इन लोगों ने कम्युनिस्टों को राजनीतिक रूप से चैलेंज करना शुरू किया। दूसरी पार्टी थी सेंगक्रक जो कि मिलिटैंट थी और फिर यहां एथनिक नफरत बढ़ने लगी।

दशरथ देब

वहीं लेफ्ट पार्टियों के संपर्क में बंगाल के रिफ्यूजी आने लगे और ऑटोनोमस डिस्ट्रिक्ट काउंसिल की मांग होने लगी। इसी मांग के आधार पर 1977 के लोकसभा चुनाव में लेफ्ट पार्टियां बहुमत से जीतीं। उसके बाद इन्होंने संविधान के छठे शेड्यूल के अंतर्गत बिल पास कर पार्लियामेंट भेजा। इसी ऑटोनोमस डिस्ट्रिक्ट काउंसिल के मसले पर पर तत्कालीन सरकार ने इसे पांचवें में डाल दिया। इस काम में सरकार को 5 साल लगे।

शुरू हुआ हत्याओं और विस्थापन का दौर

इसी पांच साल में नफरत इतनी बढ़ गई कि 5 जून 1980 को मंडई में 350 के लगभग बंगालियों को कत्ल कर दिया गया। इसके बाद दंगे भड़क गये। हजार से ज्यादा लोग मरे। ज्यादातर बंगाली ही थे। इसके बाद के आने वाले सालों में हजारों लोग और मरे। ज्यादातर बंगाली ही। पूरा राज्य आर्थिक रूप से टूट गया। विकास तो ऐसे भी नहीं हो रहा था और फंस गया। लाखों लोगों का विस्थापन भी हुआ।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) को भी पैर जमाने का मौका मिला इसी बीच क्योंकि कई ऐसे मिलिटैंट ग्रुप थे जो लोगों को बाध्य करते थे कि चर्च का कहा मानो। कुछ संघ के प्रचारकों का कत्ल भी हो गया। कांग्रेस तो निपट रही थी। कम्युनिस्ट कमजोर हो रहे थे, आर्थिक नीतियों के आधार पर। ये संघ के लिए मुफीद मौका था।

क्रमश: ..........

 

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TAGS: ipft, trugp, tripura, shantanu bhaumik, journalist killed in tripura, communists and rss
OUTLOOK 23 September, 2017
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