कृषि सुधार या संकट का फरमान: नए विधेयक के विरोध में पूरे देश में फूटा गुस्सा
आम सहमति है। क्या वाकई? राज्यसभा में उप-सभापति ने सदन का समय बढ़ाने पर 12 राजनैतिक दलों के ना कहने पर भी यही कहकर सदन की कार्यवाही आगे बढ़ा दी। सरकार का दावा है कि कैबिनेट में भी तीन कृषि अध्यादेशों और विधेयकों पर आम सहमति थी, लेकिन अकाली दल की हरसिमरत कौर ने मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया और कहा कि उनकी आपत्तियों को तवज्जो नहीं मिली। राष्ट्रपति ने भी 12 विपक्षी पार्टियों की दलीलों पर केंद्र सरकार की सहमति को अहमियत देकर इन तीनों पर अपनी मुहर लगा दी। इस तरह सरकार और कई अर्थशास्त्रियों की नजर में लगभग ढाई दशक से लंबित ये सबसे बड़े आर्थिक सुधार अब कानून बन गए हैं। लेकिन किसान इन सुधारों को अपनी बर्बादी का फरमान मानकर विधेयकों के पेश होने के पहले ही आंदोलन की राह पर उतर गए। पहले पंजाब और हरियाणा के किसान सड़कों पर उतरे। हरियाणा में कुरुक्षेत्र जिले के पिपली में प्रदर्शनकारी किसानों पर पुलिस लाठीचार्ज से यह दूर तक फैला और भारतीय किसान यूनियन के नेता गुरनाम सिंह चढूनी की मांग पंजाब और हरियाणा के गांवों और शहरों में होने लगी। पंजाब में बलबीर सिंह राजेवाल की किसान यूनियन ने मोर्चा संभाला। सरकार और सुधारों के पक्षधर इसे हरियाणा, पंजाब और दिल्ली से सटे पश्चिम उत्तर प्रदेश का आंदोलन बता रहे थे। लेकिन अगले ही दिन कर्नाटक के बेंगलूरू, तेलंगाना और तमिलनाडु के बड़े जुलूस-जलसों ने इस दलील की काट पैदा कर दी। फिर, देश भर के 250 किसान संगठनों की अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति (एआइकेएससीसी) ने 25 सिंतबर को भारत बंद का आह्वान किया तो पूरे देश में प्रदर्शनों की बाढ़ आ गई। एआइकेएससीसी के सदस्य, स्वराज इंडिया के अध्यक्ष योगेंद्र यादव इसे “ऐतिहासिक” बताते हैं। उन्होंने आउटलुक से कहा, “हमें जहां उम्मीद नहीं थी, वहां भी और केआइएससीसी के दायरे के बाहर अनेक संगठनों ने प्रदर्शन किया। महाराष्ट्र के बारे में अफवाह फैलाई गई लेकिन जनाधार वाले स्वाभिमानी शेतकरी संगठन ने इन कानूनों की प्रतियां जलाईं। तो यह कहना झूठ है कि किसान गुमराह है।”
लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किसानों को गुमराह करने का आरोप विपक्षी पार्टियों पर मढ़ा। उन्होंने कहा, “यह ऐतिहासक सुधार है और इससे किसानों की स्थिति में अप्रत्याशित सुधार होगा। इसका विरोध वही कर रहे हैं जो लंबे समय तक किसानों की दुर्दशा के लिए जिम्मेदार हैं।” केंद्रीय कृषि मंत्री ने भी इस आशंका को निर्मूल बताया कि इससे कृषि उपज मंडियां खत्म हो जाएंगी और न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की व्यवस्था बेमानी हो जाएगी। उन्होंने आउटलुक से कहा, “मंडियां भी रहेंगी और एमएसपी भी पहले जैसी रहेगी। सिर्फ किसानों को अपनी उपज बेचने के लिए एक अलग विकल्प मिल जाएगा।” लेकिन किसानों की सबसे बड़ी आशंका यही है। किसान नेताओं की दलील है कि मंडियों में शुल्क लगता है, रजिस्ट्रेशन होता है और प्राइवेट मंडियों में यह सब नहीं होगा तो सरकारी मंडियों में कौन बेचने जाएगा, इस तरह मंडियां अपने आप बैठ जाएंगी। आशंका यह भी है कि मंडियां नहीं होंगी तो सरकारी खरीद नहीं होगी और इस तरह एमएसपी की व्यवस्था अपने आप बेमानी हो जाएगी। इसलिए भारतीय किसान यूनियन (राजेवाल) के अध्यक्ष बलबीर सिंह राजेवाल कहते हैं, “एमआरपी की तरह एमएसपी को भी कानूनी दर्जा दिया जाए।”
दरअसल किसान उत्पाद व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) कानून, 2020, किसान (सशक्तीकरण और संरक्षण) मूल्य आश्वासन और कृषि सेवा समझौता कानून, 2020 और आवश्यक वस्तु (संशोधन) कानून, 2020 शुरू से ही कई तरह की आशंकाएं पैदा कर गया है। ये आशंकाएं सिर्फ इन कानूनों के प्रावधानों को लेकर ही नहीं, बल्कि इन्हें जैसे कोरोनावायरस के दौर में अध्यादेश की तरह लाया गया और फिर जैसे संक्षिप्त मानसून सत्र में पास कराया गया, उससे भी काफी नाराजगी और शंकाएं उभरीं। ऐसी हड़बड़ी दिखाई गई कि इन्हें समीक्षा के लिए संसदीय समितियों के पास भेजने की विपक्ष की मांग भी खारिज कर दी गई। हालांकि भाजपा के नेताओं की दलील है कि विपक्ष अपना राजनैतिक मकसद साधने और इसे सिर्फ टालने के लिए संसदीय समितियों में भेजने की मांग कर रहा था। भाजपा के एक अहम नेता भूपेंद्र यादव ने कहा, “विपक्ष के पास कोई दलील नहीं है। कांग्रेस के तो 2019 के घोषणा-पत्र में भी ये बातें थीं। अब वे पाखंड कर रहे हैं और किसानों को गुमराह कर रहे हैं।” लेकिन कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पी. चिदंबरम कहते हैं, “यह सरासर गलत है। वे घोषणा-पत्र का कुछ अंश उठाकर भ्रम फैला रहे हैं। उसमें खरीद की मंडियां स्थापित करने और किसानों की सुरक्षा की तमाम बातें थीं।” जो भी हो, कांग्रेस संसद में और राष्ट्रपति के पास भी विपक्ष की 18 पार्टियों का ज्ञापन लेकर पहुंची थी। उसने राष्ट्रपति से आग्रह किया था कि वे इन विधेयकों पर दस्तखत न करें और दोबारा संसद में पारित कराने के लिए भेजें। ऐसी परंपरा पहले भी रही तो है लेकिन शायद एकाध मौके पर ही ऐसा हुआ है।
विवाद पहले दो विधेयकों को राज्यसभा में पास कराने के तरीके पर भी उठा। लोकसभा में पास कराए जाने के अगले दिन उन्हें राज्यसभा में पेश किया गया और उसी दिन सवा एक बजे के आसपास ध्वनिमत से पारित घोषित कर दिया गया। हालांकि सदन को एक बजे तक ही बैठना था। लगभग पौने एक बजे कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने जवाब देना शुरू किया। एक बजते ही पीठासीन उप-सभापति हरिवंश ने कहा कि सदन का समय खत्म होने को है। इस पर संसदीय कार्य मंत्री ने समय बढ़ाने की मांग की तो सदन में विपक्ष के नेता गुलाम नबी आजाद ने कहा कि ऐसा न किया जाए और इसे अगले दिन बहस के लिए रख दिया जाए। विपक्ष की बाकी पार्टियों की भी यही राय थी। कुछ सांसद ऊंची आवाज में बोलने लगे तो उपा-सभापति ने घोषणा कर दी कि कार्यवाही आगे बढ़ाने की आम सहमति है। उसके बाद हंगामा शुरू हो गया। मंत्री के भाषण खत्म करते ही उप-सभापति विधेयक के प्रावधानों को पास कराने लगे। लेकिन उन्होंने द्रमुक के त्रिचि शिवा, माकपा के ई. गणेश और तृणमूल कांग्रेस के डेरेक ओ’ब्रायन के विधेयक को संसदीय समिति में भेजने और प्रावधानों में एमएसपी की अनिवार्यता जोड़ने संबंधी संशोधनों पर मतविभाजन की मांग ठुकरा दी और हंगामे के बीच ध्वनिमत से उसे नकारा गया घोषित कर दिया। फिर डेरेक ओ’ब्रायन रूल बुक लेकर आसन के पास पहुंच गए। कई दूसरे सांसद भी वहां पहुंच गए। इस बीच विधेयक ध्वनिमत से पास कर दिए गए। बाद में हंगामे के लिए डेरेक ओ’ब्रायन, आप के संजय सिंह सहित आठ सांसदों को इस सत्र की अवधि तक निलंबित कर दिया गया।
उसके बाद लगभग समूचे विपक्ष ने संसद का बॉयकाट कर दिया और तीसरा आवश्यक वस्तु (संशोधन), 2020 भी पारित हो गया। दरअसल राज्यसभा में बकौल डेरेक ओ’ब्रयान, “सरकार के पास बहुमत नहीं था।” उनका गणित इस पर आधारित है कि आखिर वक्त में बीजू जनता दल, अन्नाद्रमुक, टीआरएस जैसे दल भी कृषि विधेयकों के विरोध में आ गए तो सत्ता पक्ष का गणित कमजोर हो गया। कुछ जानकारों का कहना है कि शायद संसदीय समिति को भेजने का प्रस्ताव पास हो जाता। बाद में राज्यसभा टीवी के दृश्यों के विश्लेषण से भी जाहिर हुआ कि इस पर संशोधन प्रस्तावों की बारी आने के वक्त द्रमुक के त्रिचि शिवा और माकपा के ई.गणेश अपनी सीट पर मौजूद थे। यह विवाद बढ़ने पर उप-सभापति का बयान आया कि मतविभाजन के लिए पूरे सदन का व्यवस्थित होना जरूरी है। वैसे, उप-सभापति को प्रधानमंत्री और उनकी पार्टी जदयू के नेता, बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से भी खूब वाहवाही मिली।
निलंबन के विरोध में राज्यसभा के आठ सांसदों ने संसद में गांधी प्रतिमा के पास रात गुजारी तो सुबह हरिवंश भी उनके लिए चाय लेकर पहुंच गए। सांसदों से तो उन्हें कुछ सकारात्मक नहीं मिला लेकिन प्रधानमंत्री ने उनके व्यवहार को ‘सच्चे राजनेता’ जैसा बताया। बिहार के उप-मुख्यमंत्री सुशील मोदी ने सदन में विपक्ष के द्वारा उनके अपमान को बिहार का अपमान बता दिया। शायद उनकी नजर में बिहार का विधानसभा चुनाव भी होगा।
हालांकि ऐसे सुधारों की पैरोकारी करने वाले अर्थशास्त्री और बाजार समर्थक बुद्घिजीवी भी अध्यादेश लाने और संसद में हड़बड़ी में विधेयक पारित कराए जाने से खुश नहीं हैं। प्रताप भानु मेहता ने अपने स्तंभ में लिखा, “इसके गुण-दोष पर चर्चा के इतर यह लोकतांत्रिक और संसदीय परंपरा का सरासर माखौल है। संसदीय समितियों की समीक्षा से क्यों सरकार बचना चाहती है और इतनी हड़बड़ी क्यों है, इसका एकमात्र संदेश यही है कि बहुसंख्या और सत्तावाद के आगे सब नतमस्तक हों।” ऐसे ही एक और टिप्पणीकार शेखर गुप्ता ने कहा कि मैं ऐसे सुधारों के पक्ष में हूं लेकिन राज्यसभा में जो हुआ, उसे तो कोई भी जायज नहीं ठहरा सकता। लेकिन किसानों और खेती-किसानी के संकट पर लगातार काम करने वाले वरिष्ठ पत्रकार, एवरी वन लव्स ए गुड ड्राउट के लेखक पी. साईनाथ की राय कुछ अलग है। उनका कहना है, “ऐसे बाजारवादी सुधारों की बात तो कुछ अर्थशास्त्री और नौकरशाह दो-ढाई दशक से करते आ रहे हैं लेकिन किसी सरकार की हिम्मत नहीं हुई कि इन्हें आगे बढ़ाया जाए। ऐसी ही सत्तावादी सरकार बिना किसी से सलाह किए ऐसा कर सकती थी।” वे मुक्त बाजार के समर्थकों पर यह सवाल भी उठाते हैं कि प्रतिस्पर्धा होगी तब तो बाजार में सबको समान लाभ होगा, लेकिन बड़ी कंपनियों के आगे एक-दो एकड़ के किसानों की क्या विसात, इसलिए यह तो धोखे के समान है।
इस पर राजनीति निश्चित रूप से तीखी है और उसके कई आयाम हैं। मसलन, शिरोमणि अकाली दल के एनडीए छोड़ने और भाजपा से नाता तोड़ने के पीछे अपने सूबे की राजनीति की चिंता हो सकती है क्योंकि शिरोमणि गुरद्वारा प्रबंधक कमेटी का रुख किसानों के पक्ष में है तो उसे अपने वोटबैंक की चिंता हो सकती है। पंजाब में तो कांग्रेस, आम आदमी पार्टी सभी केंद्र के खिलाफ हैं। अपवाद सिर्फ भाजपा है, जो वैसे भी वहां की राजनीति में हाशिए में है। देश में भी भाजपा और उसके साथ की जदयू जैसी पार्टियों को छोड़कर शायद ही कोई पार्टी इसके पक्ष में है। इसलिए किसानों की लड़ाई तो आगे बढ़ सकती है। वैसे, यह अलग सवाल है कि आने वाले दिनों में राजनीति क्या शक्ल लेती है।
भाजपा और सुधार के पैरोकारों का यह दावा भी सही हो सकता है कि हालात बदल गए हैं इसलिए नए सुधारों की दरकार है। मौजूदा राज्यों में कृषि उपज मंडियों में निश्चित रूप से छेद हैं और लंबे समय से सुधार की जरूरत महसूस हो रही थी। योगेंद्र यादव कहते हैं, “मंडियों में भ्रष्टाचार और राजनैतिक खेल वगैरह है। उनमें सुधार की जरूरत है लेकिन सरकार ने सुधार करने के बदले उन्हें खत्म करने का ही हिसाब कर दिया।” मंडियों की व्यवस्था दरअसल आजादी के आसपास इसलिए लाई गई थी, ताकि किसानों को बिचौलियों से बचाया जा सके, लेकिन किसान फिर भी बिचौलियों से नहीं बचाए जा सके। बिहार जैसे राज्य जहां मंडियां खत्म की गईं या मंडियां बनाने पर जोर नहीं रहा, वहां सरकारी खरीद बेहद कम है। बिहार में तो हाल के आंकड़ों के हिसाब से एक फीसदी से भी कम सरकारी खरीद होती है, इसीलिए समर्थन मूल्य का लाभ देश में महज छह प्रतिशत किसान ले पाते हैं। यही वजह है कि मंडियां खत्म होने से किसानों को एमएसपी व्यवस्था भी खत्म हो जाने का डर है।
डर केंद्र सरकार के दूसरे रवैए से भी हो रहा है क्योंकि 2014 में सत्ता में आने के बाद केंद्र सरकार ने शांता कुमार कमेटी बनाई थी, जिसकी सिफारिशें मुख्य रूप से सरकारी खरीद कम से कम करने की थीं। केंद्र 2019 में कई राज्यों को लिखकर सरकारी खरीद घटाने की सलाह दे चुका है।
इससे भी ज्यादा विवाद खेती में कंपनियों के किसानों से करार और आवश्यक वस्तुओं की फेहरिस्त से खाद्य पदार्थों को हटाने वाले कानूनों पर है। आशंका है कि इससे बड़े कॉरपोरेट किसानों से फसल का करार कर सकेंगे और उन पर कोई बंदिश नहीं होगी। जाहिर है, किसानों की सुरक्षा के लिए इसमें ज्यादा कुछ नहीं है। सरकार यह जरूर कह रही है कि किसानों को कंपनियों के पास कागजात नहीं जमा कराने होंगे लेकिन इसका जिक्र कानूनी प्रावधानों में नहीं है। इससे डर है कि किसान कर्ज के जाल में फंसकर जमीन गंवा सकते हैं। पंजाब में पेप्सी और कुछ कंपनियों की खेती का कड़वा अनुभव किसानों को हो चुका है। आवश्यक वस्तु कानून में संशोधन से आपात स्थितियों को छोड़कर स्टाकिस्टों के भंडारण पर कोई बंदिश नहीं रह जाएगी। इसलिए योगेंद्र कहते हैं कि ये कानून किसानों के लिए नहीं, कॉरपोरेट के लिए हैं। सरकार की दलील है कि इससे प्राइवेट निवेश आएगा, लेकिन उसका लाभ किसानों कितना मिलेगा, यह संदिग्ध है।
बहरहाल, कई सवाल भविष्य के गर्भ में हैं। क्या सरकार किसानों के विरोध और दूसरी राजनैतिक पार्टियों के दबाव में एमएसपी को कानूनी दर्जा देने का कोई कानून लाएगी? फिलहाल तो कृषि मंत्री कहते हैं कि एमएसपी कभी कानूनी था ही नहीं, यह प्रशासनिक फैसला रहा है और है। या कंपनियों से करार वाले कानून में कोई फेरबदल आएगा, जिससे विवाद निपटारे की व्यवस्था कुछ किसानों के हक में हो? फिलहाल तो विवाद की स्थिति में उसे पहले एसडीएम, फिर डीएम और अंत में केंद्रीय सचिव की कमेटी के पास जाने का प्रावधान है और उसे अदालती राहत भी इस लंबी प्रक्रिया के बाद ही हासिल हो सकती है।
हालांकि कई राज्यों में चुनावों के मद्देनजर फेरबदल की संभवना हो सकती है लेकिन शायद यह तभी हो जब विरोध बढ़े और चुनावों में इसका असर दिखे। इसके पहले 2015 में बिहार चुनावों के पहले भूमि अधिग्रहण संशोधन अध्यादेश को छोड़ दिया गया था। या 2018 में मध्य प्रदेश, राजस्थान राज्यों में हार के बाद किसान सम्मान निधि के तहत 2 एकड़ तक के किसानों को 6,000 रु. सालाना देने का ऐलान हुआ था। अभी बिहार में चुनाव हैं और उसके बाद पश्चिम बंगाल सहित कई राज्यों में चुनाव हैं। तो देखना दिलचस्प होगा कि किसान राजनीति किस करवट बैठती है।
कृषि उपज व्यापार एवं वाणिज्य (संवर्धन एवं सरलीकरण) कानून, 2020
क्या हैं प्रावधान
किसान एपीएमसी की मंडियों के अलावा किसी फैक्टरी, प्रोसेसिंग प्लांट, उपज संग्रह केंद्र, कोल्ड स्टोरेज या अपने खेत में भी उपज बेच सकेंगे। इन सौदों पर कोई शुल्क नहीं लगेगा। अभी देश में करीब 7,000 एपीएमसी मंडियां हैं। निजी कंपनियों को अपना बाजार स्थापित करने की अनुमति होगी। सरकार का कहना है कि मंडियों में बिचौलियों/आढ़तियों को कमीशन देने से सप्लाई चेन लंबी हो जाती है और उपभोक्ताओं के लिए वस्तुएं महंगी हो जाती हैं।
सरकार क्या कहती है
किसान जिसे चाहे अपनी उपज बेच सकता है। किसानों से खरीद के लिए एग्री-बिजनेस कंपनियां और ट्रेडर अपना बाजार खोल सकते हैं। एपीएमसी की व्यवस्था बनी रहेगी और सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) तय करना भी जारी रखेगी।
किसानों को डर क्यों
एपीएमसी मंडियों से बाहर का कारोबार लगभग पूरी तरह अनियंत्रित रहेगा। बहुत लोगों का मानना है कि अगर नियंत्रित थोक बाजार नहीं रहेंगे तो निजी खरीदार किसान पर कम दाम पर उपज बेचने के लिए दबाव डाल सकते हैं। निजी खरीदार की कीमत से असंतुष्ट किसान के पास मंडी में जाने का विकल्प नहीं होगा, वह मोलभाव करने की स्थिति में नहीं होगा। किसानों का यह तर्क भी है कि कमीशन एजेंट उन्हें ग्रेडिंग करने, तौलने और पैकिंग में मदद करते हैं। वे किसानों को समय पर भुगतान भी आश्वस्त करते हैं। किसान की कोई शिकायत रही तो वह एपीएमसी अधिकारी के पास जा सकता है। नए कानून के मुताबिक विवाद होने पर किसान को एसडीएम, फिर डीएम और फिर केंद्र के पास जाना पड़ेगा।
कृषक (सशक्तीकरण व संरक्षण) कीमत आश्वासन और कृषि सेवा करार कानून, 2020
क्या हैं प्रावधान
इसमें किसान और खरीदार के बीच ठेके पर खेती के लिए करार का प्रावधान है। यह करार बुआई से पहले होगा। विवाद निपटाने के लिए त्रि-स्तरीय व्यवस्था बनाई गई है- समझौता बोर्ड, एसडीएम और अपीलेट अथॉरिटी।
सरकार क्या कहती है
किसान को पहले से मालूम होगा कि उपज की क्या कीमत मिलेगी। करार मानने के लिए वह बाध्य नहीं होगा। किसान जब चाहे करार से पीछे हट सकता है, इसके लिए उस पर कोई जुर्माना नहीं लगेगा।
किसानों को डर क्यों
अगर कंपनी करार पीछे से हटती है तो उस पर जुर्माने का प्रावधान नहीं है। इस बात का भी जिक्र नहीं है कि करार में तय कीमत एमएसपी के बराबर या उससे अधिक होगी। इसका मतलब यह हुआ कि कंपनी करार में भी किसान पर अपनी मर्जी की कीमत थोपना चाहेगी। अभी तक ठेके पर खेती का अनुभव अच्छा नहीं रहा है। सरकारी मंडियों में एमएसपी पर बेचने की तुलना में किसानों को ठेके पर खेती में बहुत कम कीमत मिलती है।
आवश्यक वस्तु अधिनियम (संशोधन) कानून, 2020
क्या हैं प्रावधान
संशोधन के जरिए सरकार ने जमाखोरी रोकने और महंगाई नियंत्रित करने का अपना अधिकार छोड़ दिया है। अब सरकार तभी हस्तक्षेप करेगी जब फल-सब्जी जैसी जल्दी नष्ट होने वाली चीजों की कीमत एक साल पहले की तुलना में 100% और लंबे समय तक रखी जा सकने वाली उपज की कीमत 50% बढ़ जाए।
सरकार क्या कहती है
कृषि उपज जैसी जरूरी वस्तुओं की कीमत स्थिर रखने में मदद मिलेगी जिससे उपभोक्ताओं को फायदा होगा।
किसानों को डर क्यों
अभी तक किसान के लिए उपज रखने की कोई सीमा नहीं थी। इसलिए वह तब तक उपज अपने पास रख सकता था, जब तक अच्छी कीमत न मिले। नए कानून में कंपनियों और व्यापारियों को भी जितनी चाहे मात्रा में भंडारण का अधिकार दे दिया गया है, जिससे जमाखोरी बढ़ सकती है। इस तरह कृत्रिम कमी पैदा करके बाजार में दाम बढ़ाए जा सकते हैं।
किसान के पूरे देश में उपज बेचने की बात महज जुमला है
नए कृषि कानून में अगर सरकार लोगों की सलाह मानती तो वह बहुत अच्छा कानून बनता। सफाई देने से अच्छा है कि वह किसानों की चिंताओं को समझे और नया कानून लाए या फिर उसमें बदलाव करे। यह मांग आरएसस से जुड़े संगठन भारतीय किसान संघ ने की है। संघ के महामंत्री बद्री नारायण चौधरी ने प्रशांत श्रीवास्तव से अपने विचार साझा किए हैं। प्रमुख अंशः
कृषि सुधारों के नाम पर लाए गए तीन कानून क्या किसानों के लिए फायदेमंद हैं?
नए कानूनों में किसानों के हित के लिए कई बातें ठीक हैं, लेकिन अगर सुझावों को सरकार स्वीकार करती तो बहुत अच्छा कानून बनता। हमने सरकार को तीन-चार सुझाव दिए थे, जो बिल के लिए अति आवश्यक हैं। सरकार को चाहिए कि वह हठ न करे और मौजूदा कानूनों में सुधार करे या नया कानून लेकर आए।
भारतीय किसान संघ के किन सुझावों को सरकार ने नहीं माना?
पहली बात यह है कि सरकार को एमएसपी की गारंटी देनी चाहिए। दूसरी बात, भुगतान के लिए तीन दिन का प्रावधान करने की क्या जरूरत थी? इससे तो उधारी की व्यवस्था खड़ी होगी और नए तरह के बिचौलिये तैयार हो जाएंगे। कॉन्ट्रैक्ट फॉर्मिंग के नियमों भी किसानों का शोषण बढ़ने का खतरा है। किसी विवाद पर एसडीएम के पास सुनवाई समझ से परे है, किसानों के लिए अलग से कृषि न्यायालय बनाए जाने की जरूरत है।
लेकिन प्रधानमंत्री बार-बार आश्वासन दे रहे हैं कि एमएसपी व्यवस्था खत्म नहीं होगी?
एमएसपी के लिए जितना प्रचार किया जा रहा है, प्रधानमंत्री जी से बयान दिलवाए जा रहे हैं, उसकी कोई जरूरत नहीं थी। केवल उसे कानूनी रूप देने की जरूरत थी। अगर कल कोई दिक्कत आएगी तो क्या किसान. कृषि मंत्री और प्रधानमंत्री के पास जाएगा? ये सभी सुझाव संगठन ने कृषि मंत्री को दिए थे, वे हमारी बातों से सहमत भी दिखे, फिर भी विधेयक में सुझाव शामिल नहीं हुए। इससे लगता है कि सरकार पर नौकरशाही हावी है।
भुगतान के लिए तीन दिन के कानूनी प्रावधान पर क्या आपत्ति है?
किसान को हाथोहाथ भुगतान क्यों नहीं मिलना चाहिए। नई व्यवस्था में ऐसे बिचौलिये आ जाएंगे, जो पहले किसान से फसल खरीदेंगे, उसके बाद वह उसे बाजार में बेचेंगे और फिर किसान को भुगतान करेंगे। देश में आपको ऐसे मामले मिलेंगे, जहां किसान भुगतान के लिए दर-दर भटकता रहता है। राजस्थान में लहसुन खरीद का मामला हो, हिमाचल में फल या फिर नासिक में अंगूर का भुगतान का हो, यह सबके सामने है।
कांट्रैक्ट फार्मिंग को लेकर क्या डर है?
कांट्रैक्ट फॉर्मिंग में एमओयू किए जाएंगे, ऐसे में कॉरपोरेट के आगे छोटा किसान कहां टिकेगा। कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग में ग्रेडिंग, मानकीकरण जैसे प्रावधान हैं। जाहिर है उद्योगपति, प्रोसेसर और व्यापारी जो भी खरीद करेंगे, उनके हितों का पूरा ध्यान रखा गया है। इसी तरह सर्वेक्षण के खर्च पर कानून मौन है। अगर वह किसान के जिम्मे होगा तो उसकी लागत वैसे ही बढ़ जाएगी। सोचिए कंपनियां जब कांट्रैक्ट करेंगी तो केवल उच्च ग्रेडिंग वाली फसल ही खरीदेंगी, बाकी फसल का क्या होगा। समझ में नहीं आ रहा है कि सरकार व्यापारियों के बारे में इतना क्यों सोच रही है?
स्टॉक लिमिट पर सरकार के अधिकार कम होने से क्या जमाखोरी नहीं बढ़ेगी?
जमाखोरी को लेकर काल्पनिक बातें हो रही है, लेकिन आशंका तो है। जब मौसम अच्छा या खराब होने से फसलों की कीमत कम या ज्यादा हो जाती है, तो सरकार के अधिकार सीमित होने पर मुनाफा कमाने वाले जमाखोरी की कोशिश जरूर करेंगे।
सरकार कह रही है कि नए कानून के बाद किसान पूरे देश में उपज बेच सकेगा...।
देखिए यह केवल एक जुमला है। देश में 86 फीसदी छोटे किसान हैं। वे मंडी तक तो जा नहीं पाते हैं, देश के दूसरे कोने में कैसे पहुंचेंगे। रही बात उसे बाजार देने की, तो सरकार ने दो बजट में घोषणा की थी, कि देश भर में 22 हजार मंडियां बनाई जाएंगी। अगर इन घोषणाओं पर अमल हो जाती है, तो किसानों को वास्तव में बड़ी राहत मिल जाएगी।