इलावास से इलाहाबाद और फिर प्रयागराज बनने की कहानी, इतिहासकार की जुबानी
शेक्सपीयर ने कहा था, “नाम में क्या रखा है?” रामधारी सिंह ‘दिनकर’ ने लिखा है, “समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध/ जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध”। यह मानते हुए भी कि नाम बदलने से कुछ नहीं होता फिर भी इतिहास के क्रूर मूल्यांकन में अपना पक्ष शिद्दत से रखना जरूरी होता है। दुष्यंत कुमार ने कहा भी है, “हिम्मत से सच कहो तो बुरा मानते हैं लोग/रो-रो के बात कहने की आदत नहीं रही”।
इतिहास के क्रम को नजरंदाज करके मानव-विकास के क्रम को हम नहीं समझ सकते। शासन का मूल्यांकन बाद की प्रक्रिया है, पहले सभी चरण इतिहास के विवरण में सम्मिलित तो हों? हम भारतीय इतिहास के प्राचीन काल को 10वीं सदी में समाप्त कर के सीधे 21वीं सदी की बात करके क्या मानव के विकास के क्रम को सत्यता, तार्किकता, तथ्यात्मकता, वैज्ञानिकता के बोध से चित्रित कर पाएंगे? क्या इतिहास मानव-विकास का क्रमबद्ध अध्ययन नहीं है? यदि है, तो हमें भारत के प्राचीन के साथ मध्यकाल के अध्ययन के बाद ही आधुनिक काल में प्रवेश करना चाहिए।
विद्वानों का मानना है कि जिस राष्ट्र का इतिहास नहीं होता वह उसी व्यक्ति के समान होता है, जिसकी स्मृति चली गई हो। अतः आधी स्मृति लोप कर हम अर्ध-विक्षिप्त क्यों बनना चाहते हैं? एक बात और हम आज के नजरिए से भारत को एक राष्ट्र-राज्य के रूप में न देखें तभी हम इसकी पूर्व स्थिति को अच्छी तरह समझ पाएंगे। भारत और यूनान दोनों ही “सभ्यता राज्य” थे। इनकी सभ्यता के विस्तार का सबूत इनका साम्राज्य था। भारत सिर्फ हिमालय से हिंद महासागर तक सीमित, संकुचित क्षेत्र नहीं था। इसकी विशालता और विस्तार की समझ इसके सभ्यता और संस्कृति के विस्तार से ही हो सकती है। अतः भारत को वर्तमान परिभाषा के अनुसार आज के भारत के रूप में परिभाषित करना गलत होगा और एक “एक-ध्रुवीय सांस्कृतिक राष्ट्र-राज्य” के रूप में तो कतई नहीं। यह प्रारंभ से ही ‘समावेशी सांस्कृतिक’ राज्य रहा है। तभी तो आस्तिक भी हिंदू, नास्तिक भी, शैव, वैष्णव, बौद्ध, जैन, शाक्त, नाथ-सिद्ध सभी हिन्दू ही हैं।
जब कोलाहल हो और तेज आवाज में संतुलित, संयत, न्यायिक, तार्किक बातों को कोई सुनना न चाहता हो तब ही इन आवाजों की सबसे ज्यादा जरूरत होती है? ‘सभ्यता राज्य’ के स्थान पर ‘एकध्रुवीय सांस्कृतिक राज्य’ की अवधारणा विभाजनकारी न भी हो तो भी घातक परिणाम वाली तो होगी ही। राजनीतिक लाभ उठाने के लिए हम फिर से अपने देश को 1922 से 1947 के सांप्रदायिकता के दौर में तो वापस नहीं घसीट रहे हैं? जिस प्रकार राष्ट्र के लिए इतिहास अपरिहार्य होता है उसी प्रकार, प्रांतों, शहरों, क्षेत्रों और मोहल्लों-बस्तियों की ‘लोक स्मृति’ उन्हें अपने जड़ों से जोड़े रहती है।
आइए, अब इलाहाबाद के नाम के मूल विषय के क्रम को आगे बढाएं। हमारे परंपरा में ब्रह्मा जी ने सर्वप्रथम मानस सृष्टि की रचना की। सर्वप्रथम उन्होंने अपने मन से मनु की उत्पत्ति की। फिर अपने दाहिने अंग से शतरूपा बनाई। इन दोनों से मैथुनी सृष्टि की रचना हुई। इनका एक पुत्र एल हुआ, वहीं शिव के श्राप से इला नामक कन्या हुई। उसका विवाह चंद्र पुत्र बुद्ध से हुआ और पुत्र हुआ पुरुरवा। इसी पुरुरवा ने प्रतिष्ठानपुर (झूंसी) में चंद्रवंशी राज्य की स्थापना की, जिस प्रकार अयोध्या में सूर्य वंश स्थापित हुआ था। यह प्रतिष्ठानपुर गंगा-यमुना-सरस्वती के संगम या प्रयाग क्षेत्र से पूरब में स्थित था। अतः ‘लोक स्मृति’ में यह क्षेत्र इला-वास भी कहलाता था।
गंगा हिमालय से उतरकर पूर्व-वाहिनी थी। यमुना और सरस्वती दोनों ही पश्चिम वाहिनी थीं। बाद में सुनामी जैसी किसी प्राकृतिक आपदा के चलते सरस्वती भूमिगत और यमुना पूर्व मुखी हो गई। इतना ही नहीं, सरस्वती की कोई सहायक नदी भी इसके साथ पूर्व मुखी हुई- जिसका उल्लेख ‘लोक स्मृति’ में ही मिलता है। इसीलिए यह मान्यता है कि सरस्वती भी गुप्त रूप से इस संगम का अविभाज्य अंग है।
वस्तुतः त्रेता युग में इसी संगम तट पर भारद्वाज ऋषि का आश्रम था। ब्रह्मा जी के यज्ञ की अंतर्वेदी का स्थान होने के कारण व्युत्पत्ति के सिद्धांत के अनुसार यह ‘प्रयाग’ कहलाया। प्रयाग-क्षेत्र में ही भारद्वाज आश्रम स्थित था एवं उसके पूर्व में उनकी उत्पत्ति से पहले यह मनु-शतरूपा की संतान इला के पुत्र का शहर या नगर था– प्रतिष्ठानपुर।
इस यज्ञ, मानव सृष्टि और टेथिस सागर के हटने से पूर्व समुद्र-मंथन और उसमें प्राप्त अमृत प्रकट होने से मानव सभ्यता की शुरुआत की संयुक्त स्मृति में माघ मास में “कल्पवास” या समय (कल्प) की अवधारणा विकसित हुई। हिंदू पंचांग के अनुसार पौष मास के पूर्णिमा से माघ मास पूर्णिमा तक एक माह तक ‘कल्पवास’ की परिकल्पना की गई। त्रेता में भारद्वाज आश्रम संगम पर स्थित प्रयाग में स्थित था। इससे दो बातें तो स्पष्ट हैं। एक, ऐसे ‘गुरुकुल’ अरण्य या वन में ही स्थित होते थे, जहां एकांत में गुरु अपने शिष्यों को शस्त्र-शास्त्र के ज्ञान के साथ प्रकृति के रहस्यों अर्थात ज्ञान-विज्ञान पढ़ाते ही नहीं, अपितु इन विषयों में शोधरत भी रहते थे। ये स्थान शहरों-नगरों-बस्तियों से दूर स्थित होते थे।
दूसरी बात, त्रेता में राम के भारद्वाज आश्रम से जुड़ी है। हमें स्मरण रखना होगा राम को “वनवास” मिला था न कि राज्य से निर्वासन मात्र। अतः वे वन क्षेत्रों में ही वास कर सकते थे। अतः उस काल से लेकर पुराणों तक में जहां-जहां प्रयाग का उल्लेख है वहां “प्रयाग-वन” ही मिलता है। अतः “प्रयाग” यदि ब्रह्मा और उनके यज्ञ-स्थली के रूप में स्मरण किया जाता है तो मानव सृष्टि की उत्पत्ति तो इला से संबद्ध है। इतिहास में ऐतिहासिकता का लोप असंभव है!
अब उसके बाद के इतिहास के पन्नों को भी पलटिए। अकबर पूर्व के काल में ‘महाजनपद’ काल अर्थात 6वीं सदी ईसा पूर्व से लेकर अकबर के आगमन तक हमें नगरों के रूप में संगम या प्रयाग क्षेत्र के पूरब में प्रतिष्ठान एवं पश्चिम में कौशांबी के ही उल्लेख मिलते हैं। मध्यकालीन भारत के उस दौर में जब तुर्की सत्ता की स्थापना हुई तब सत्ता का मुख्यालय गंगा के दोनों तट के सम्मिलित क्षेत्रों को संबद्ध करके कड़ा-मानिकपुर का उल्लेख मिलने लगता है। जब अकबर सत्ता में आया तो उसे पूर्वी क्षेत्रों से लगातार विरोध और विद्रोहों का सामना करना पड़ा। अतः वह कड़ा-मानिकपुर से चलकर प्रयाग (जिसे अबुल फजल ‘पियाग’ लिखता है) क्षेत्र में गंगा पार करते हुए उनका दमन करता था। तब उसने संगम क्षेत्र देखा और उसे उसका सामरिक महत्व समझ में आया।
अबुल फजल लिखता है कि उसने इसके भौगोलिक एवं सामरिक महत्व को मूल्यांकित करते हुए यहीं अपने साम्राज्य के पूर्वी क्षेत्रों की सुरक्षा के लिए एक सुदृढ़ दुर्ग के निर्माण का फैसला लिया। उसे ज्ञात था इसी पूर्वी क्षेत्र से उभरकर शेरशाह ने उसके पिता हुमायूं को न केवल पराजित किया था अपितु उससे उसका राज्य छीनकर भारत से ही निर्वासित कर दिया था। अतः इस क्षेत्र में कानून-व्यवस्था उसकी प्राथमिकता हो गई। उसने यहां 1574 में दुर्ग की नींव डाली और 1583 में इसका निर्माण पूरा हुआ। 1580 में उसने साम्राज्य को सूबों में विभक्त करते हुए इस क्षेत्र के महत्व के अनुसार इसे एक सूबे का नाम दिया और इसी के चलते यहां एक नगर बसाया जिसको ‘लोक-स्मृति’ के चलते ‘इला-वास’ का नाम दिया गया। किंतु, स्थानीय बोली में ‘व’ प्रायः ‘ब’ उच्चारित होने के कारण यह इलाबास हुआ होगा।
इलाबास के सूबे के मुख्यालय के रूप में उसने ‘संगम’ या ‘प्रयाग’ क्षेत्र से दक्षिण और दक्षिण-पश्चिम में बाह्य परकोटे से घिरा हुआ इसी सूबे के नाम का एक शहर विकसित किया। यह बिलकुल नया शहर था, जिसकी सीमाएं पृथक थीं। यह नवीन शहर किले से शुरू होकर पश्चिम में खुल्दाबाद सराए तक जाता था। बाद में रेलवे का मार्ग प्रशस्त करने और पुराने शहर को नए शहर से जोड़ने के लिए ‘ओवर ब्रिज’ की आवश्यकता महसूस हुई और वह बना भी।
हमें इलाहाबाद के इतिहास पर किए शोधपूर्ण प्रमाणिक ग्रंथ पढ़ने चाहिए। नेविल के गजेटियर (1911), सालिग्राम श्रीवास्तव कृत ‘प्रयाग प्रदीप’ (1937) एवं बिशंभर नाथ पांडे कृत ‘एलाहाबाद: प्रोस्पेक्ट एंड रेट्रोस्पेक्ट’ (1955) देखनी चाहिए, जिसमे हमें इस नए शहर का नाम ‘इलावास’ ही मिलता है।
अकबर ‘लोकस्मृति’ के अनुसार नामकरण करने के लिए मजबूर रहा होगा। उसे अपने राज्य की स्वीकारोक्ति के साथ अपने आपको एक संरक्षक शासक के रूप में प्रस्तुत करने की बात अबुल फजल की कृति ‘अकबरनामा’ के अध्ययन से स्थापित हो जाती है। लेकिन, अकबर के काल के इतिहास भी उसकी मृत्योपरांत पूर्ण हुए थे। इतिहासकारों ने उसके ‘इलाही’– जैसे ‘दीन-ए-इलाही’, ‘तौहीद-ए-इलाही’, ‘गज़-ए-इलाही’ एवं ‘इलाही संवत’ से प्रभावित होते हुए संभवतः इसे ‘इलावास’ से ‘इलाहाबास’ कहा हो और शाहजहां के काल के इतिहास-ग्रंथों में यह ‘इलाहाबाद’ हो गया।
अंग्रेजों ने जब 1857 की क्रांति के पश्चात इसे पश्चिमोत्तर प्रांत (बाद में इसी का नाम संयुक्त प्रांत पड़ा) की राजधानी बनाया। उन्होंने अकबर के पुराने शहर के इतर उत्तर के क्षेत्र में नया शहर बसाया और तब इस पूरे शहर को ‘अल्लाहाबाद’ का नाम दे दिया। आजादी के बाद इस शहर को पुनः ‘इलाहाबाद’ लिखा जाने लगा, लेकिन अंग्रेजी में यह अब भी अल्लाहाबाद लिखा जाता है। साठ साल तक इस शहर में रहने और लगभग 40 वर्षों तक इलाहाबाद विश्वविद्यालय में इतिहास पढ़ने के बाद अचानक हुए नए नामकरण से असहज और जड़ों से कट जाने का एहसास सा हो रहा है। यह नए अस्तित्व का संकट है क्योंकि, उत्तर प्रदेश के लोग बसपा और सपा सरकारों में शहरों के नामकरण और परिवर्तनों, पुनः परिवर्तनों की राजनीति और राजनीतिक निहितार्थों को अधिक समझने लगे हैं।
खासतौर से जनतांत्रिक राज्यों में ऐसे महत्वपूर्ण निर्णय “जनमत संग्रह” से किए जाते हैं- मसल, यूरोपीय संघ में रहने को लेकर ब्रिटेन ने जनमत संग्रह कराया। हमारे संविधान की प्रस्तावना में “हम भारत के लोग” का अभिप्राय भी यही है। सिर्फ अपने राजनीतिक दल के लोगों और अपने स्वार्थ में निर्णय लेने का न तो औचित्य है न संवैधानिक प्रावधान। आमजन की सहमति के अभाव में यह थोपा हुआ निर्णय ही प्रतीत हो रहा है। न्याय की तरह शासन के लिए भी यह सत्य है कि ‘राज्य न सिर्फ किया जाए अपितु ऐसा लगे भी। वह किसी एक वर्ग को असंतुष्ट करने वाला प्रतीत न हो’।
(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय में इतिहास के विभागाध्यक्ष रहे हैं)