अमर्त्य सेन को चांसलर नहीं बनाना चाहती सरकार
अमर्त्य सेन ने लिखा है, मैं इस बात से गहरे रूप से दुखी हूं कि शासन में सरकार के विचारों से अकादमिक गवर्नेंस इतनी बुरी तरह से प्रभावित है।
सेन से पहले भी कई और बुद्धिजीवी भारतीय जनता पार्टी सरकार का शिकार बन चुके हैं।
आइआइटी दिल्ली और इंडियन काउंसिल फॉर हिस्टोरिकल रिसर्च में भी धर्मनिरपेक्ष छवि के व्यक्तियों को हटाकर हिन्दुत्व की विचारधारा वाले लोगों को लाया गया। अमर्त्य सेन का मामला भी पुरानी घटनाओं की ही अगली कड़ी है।
अमर्त्य सेन ने विश्वविद्यालय नालंदा विश्वविद्यालय की गवर्निंग बॉडी को लिखे पांच पेज लंबे पत्र में लिखा है कि एक पहली पहले इस बॉडी ने सर्वसम्मति से इस प्रस्ताव को पारित किया था कि मैं ही विश्वविद्यालय के कुलपति पद पर दूसरी पारी में रहूं।
यह प्रस्ताव एक महीने पहले नालादा विश्वविदायलय कानून के मुताबिक स्वीकृति के लिए राष्ट्रपति को भेज दिया गया था। लेकिन उधर से कोई जवाब नहीं आया। इसका साफ अर्थ यह है कि केंद्र सरकार मुझे इस पद पर नहीं देखना चाहती है। उन्होंने इस बात की ओर भी इशारा किया है कि राष्ट्पति की मंजूरी केंद्र सरकार की मंजूरी पर टिकी होती है और यह देरी सिर्फ राजनीतिक वजहों से हो रही है।
गौरतलब है कि अमर्त्य सेन को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का आलोचक माना जाता है। केंद्र में सरकार बनने के बाद से हालांकि दोनों के बीच कोई जाहिर टकराव तो नहीं सामने आया, लेकिन नीतिगत विरोध जगजाहिर हैं।
इतिहासकार चारू गुप्ता का कहना है कि अमर्त्य सेन के प्रति इस तरह की उदासीनता दुकद और गलत है। सरकार के इस रवैये से साफ है कि वह अकादमिक दक्षता के बजाय चरम राजनीतिक दखलंदाजी कर रही है। हमें यह भी सोचना होगा कि हम किस तरफ बढ़ रहे हैं। तथ्यात्मक मानदंड अपनाने के बजाय क्या हम राजनीतिक पूर्वाग्रहों से अकादमिक जगत को संचालित करेंगे।
दिल्ली विश्वविद्यलय में हिंदी के प्रोफेसर अपूर्वानंद ने आउटलुक को बताया कि यह पूरा प्रसंग बहुत विडंबनापूर्ण हैं। यह बात बहुत हैराने वाली है कि एक महीने में राष्ट्रपति के यहां से जवाब न मिलने पर अमर्त्य सेन इतने अधीर क्यों हो गए। जबकि पिछले डेढ़ सालों से देश के कई विश्वविद्यालयों में कुलपतियों की नियुक्ति अटकी हुई है। अपूर्वा सवाल उठाते हैं कि क्या स्वायत्ता सुविधा का मामला है या अधिकार का। उनके हिसाब से अमर्त्य सेन को विश्वविद्यालयों की स्वायत्ता से जुड़े बड़े विषय उठाने चाहिए थे, जैसे राष्ट्रपति का दखल क्यों जरूरी हो किसी भी नियुक्ति में। जब पूरी संस्कृति में स्वायत्ता नहीं है तो सिर्फ एक जगह उसकी अपेक्षा कैसे की जा सकती है।