शर्म इनको मगर नहीं आती
दिल्ली एक बार फिर शर्मसार हुई। एक नौजवान लड़की के साथ टैक्सी वाले ने बलात्कार किया और उसके बाद फिर से महिलाओं की सुरक्षा पर सवाल खड़े हुए, चिंताएं जताई गई। दो साल पहले 16 दिसंबर को हुए निर्भया बलात्कार कांड के बाद महिलाओं की मममम की गारंटी करने के लिए 1,000करोड़ रुपये का निर्भया फंड बनाया गया था और इस फंड का पैसा जस का कोई इस्तेमाल न होना, हमारी पूरी व्यवस्था के महिला विरोधी होने की गवाही दे रहा है। यही महिला विरोधी विमर्श हरियाणा की दो बहादुर लड़कियों-आरती और पूजा द्वारा बस में मनचलों की पिटाई के बाद शुरू हुआ, जिसमें इन लड़कियों को ही दोषी ठहराने की सारी कोशिश दिखाई दे रही है।
हमारी पूरी व्यवस्था और समाज इस कदर से रुज्ण और कुत्सित मानसिकता की गिरफ्त में है कि बलात्कार की हर घटना के बाद लड़कियों के पहनावे, देर रात तक उनके बाहर रहने पर सवाल उठाए जाते हैं। वह भी तक जब दिल्ली और बंगलूर जैसे महानगरों में पिछले एक महीने में बच्चियों के साथ बलात्कार की दो दर्जन घटनाएं सामने आ चुकी हैं। स्कूलों में अध्यापकों और सहपाठियों द्वारा बच्चियों के साथ बलात्कार की घटनाएं खौफनाक ढंग से बढ़ी हैं। स्त्री अधिकारों के लिए संघर्ष करने वाली कमला भसीन ने आउटलुक को बताया कि छह महीने की बच्ची के साथ हाल में हुई बलात्कार की घटना शायद यह बता रही है कि समाज में बड़े पैमाने पर मूल्य सड़ चुके हैं और पुरुष यौनिकता वीभत्स ढंग से आक्रामक हो रही है। ऐसे में लड़कियों को पाठ पढ़ाने के बजाय लड़कों को शिक्षित करना और अपराधियों को कड़ी सजा दिलवाना, दोनों पहलुओं पर जोर देना जरूरी है। दिल्ली में बलात्कारी कार ड्राइवर का पहले भी बलात्कार के मामले कर चुका था, पेशेवर अपराधी था और तमाम नियमों का उल्लंघन करते हुए काम कर रहा था। यहां दोष उस पूरी व्यवस्था का है, जो ऐसे अपराधियों को खुला छोड़ देती है। इस मामले में टैक्सी सेवा प्रधान करने वाली यूबर एक बहुराष्ट्रीय कंपनी है और वहां पर भी सरेआम नियमों का उल्लंघन करने का मामला सामने आया। दिक्कत यही है कि हिंसक-यौन अपराध होने के बाद ही ये सारी बातें सामने आती हैं और कुछ देर ही इन पर हंगामा रहता है।
अखिल भारतीय प्रगतिशील महिला एसोसिएशन (एपवा) की सचिव कविता कृष्णन का यह कहना सही है कि जिस तरह से हर वारदात के बाद पीडि़त महिला या लड़की के खिलाफ हिंसक अभियान चलाया जाने लगता है, जैसे वह लड़की रात में क्या कर रही थी, अकेले क्यों थी, दोस्त के साथ क्यों थी। ये तमाम बातें करने वाले लोग बलात्कार को पुरुष का जन्मसिद्ध हक मानते हैं। ङ्तवाकई ये माहौल लगातार हमारे इर्द-गिर्द बढ़ता ही जा रहा है, जहां बलात्कारी के खिलाफ नफरत के बजाय, लड़की में दोष देने की कोशिश की जाती है। जब अबोध बच्चियों से लेकर उम्रदराज महिलाओं या खेतिहर मजदूर महिलाओं के साथ बलात्कार होता है, दलित महिलाओं के साथ यौन हिंसा होती है, तो ये तमाम तर्क नहीं दिए जाते। ये तर्क देने वाले जानबूझकर ये याद नहीं रखना चाहते कि भारत में सबसे ज्यादा बलात्कार घरों में होते हैं, और परिजन या रिश्तेदार करते हैं।
वहीं दूसरी तरफ, हरियाणा में जब दो लड़कियों ने बस में छेड़खानी कर रहे लड़कों की पिटाई की, तो शुरू में जो वाह-वाही मिली, उसके तुरंत बाद जिस तरह का अभियान उनके खिलाफ शुरू हो गया, मोबाइल और सोशल मीडिया पर उनका अपमान करते हुए संदेश जारी होने लगे, जिसमें बाकायदा यह लिखा था-अंधा कानून, गुंडी बहनें..हिंदू है तो हिंदुओं की आन मत जाने दे, जय श्रीराम, उससे साफ होता है कि समाज किस कदर महिला विरोधी है। लड़कियां पेशेवर पिटाई करने वाली थी कि नहीं इसकी जांच होनी चाहिए, लेकिन जिस तरह से उनके खिलाफ अभियान चलाया जाने लगा और दुश्प्रचार होने लगा, वह निश्चित तौर पर पुरुषवर्चस्व की कहानी कहता है। आज इतना दबाव है कि ये लड़कियों पुलिस सुरक्षा में घूम रही हैं और दूसरी तरफ न जाने कितने बलात्कारी या बलात्कारी मानसिकता वाले अपराधी खुले घूम रहे हैं।
-----------------
जरूरत पर करें धुलाई
भाषा सिंह
मेरा चाकू खो गया और इस बाद का मुझे बहुत मलाल है। शायद जब तक दोबारा उतना ही अच्छा और ठोस मूंठ वाला चाकू नहीं मिलेगा। घातक छुरे की श्रेणी में भले ही न आता हो, इस चाकू ने बड़ा साथ निभाया था, बड़ी घिनौनी सोच और हरकतों वालों को लंबलेट किया था। यूं तो मेरे हाथ ही पर्याप्त रहे हैं, लेकिन कई दफा सड़क या बस में ऐसे गलीज लफंगे-गुंडे मिलते हैं कि उन्हें हाथ लगाने का मन नहीं करता और ऐसे में चाकू और बचपन में सेफ्टीपिन, कैंची आदि से काम चला लेती थी। दिल्ली में नौकरी ने बहुत सिखाया। नौकरी ङ्त रिपोर्टिंग के दौरान लुच्चों की तमाम पिटाइयों में जो यादगार थीं, उसमें एक दिल्ली में पांडव नगर के बस अड्डे के पास हुई थी। दारू में बुरी तरह धुत्त एक बदमाश मुझपर चढ़ा ही जा रहा था, अश्लील फब्तियां कसते हुए। बस से उतरी तो भी वह पीछे हो लिया। बुरी तरह से महक रहा था, सो हाथ लगाने का मन न था। वह बेइंतहा तंग कर चुका था और मेरा गुस्सा सातवें आसमां पर था। तुरंत चाकू निकाला, आगे अंधेरा था। जैसे ही उसने हाथ बढ़ाया, मेरा चाकू उसकी कांख में घुसा और मूठ से उसके सिर पर मारा। पैरों से गिराया, दो-तीन लातें जमाई और आगे बढ़ गई। नोटपैड से कागज फाड़ा चाकू का खून पोंछा और घर की ओर रुख किया। ऐसी ही एक यादगार पिटाई मैंने अपनी बेटी के सामने की थी, जब वह पार्क में खेल रही थी और उसे घुमाने ले गई महिला को अपार्टमेंट का एक बुर्जुग छेड़ रहा था। इसके बारे में बेटी पहले बता चुकी थी, -एक बूढ़े अंकल दीदी को परेशान करते हैं और मुझे टॉफी देते हैं-। मैंने उस बुढ्ढे को लात-घूसों से इतना पीटा की पूछो मत। बाद में मेरा नाम धुलाई करने वाली मैडम पड़ गया और कइयों की धुलाई करनी पड़ी।
----
काश मारना ही हल होता
आकांक्षा पारे काशिव
लड़कियां स्वभावत: सहनशील होती हैं। ऐसा मैं मानती हूं क्योंकि छोटी छींटाकशी, ऊटपटांग ताने, बेसुरी आवाज में नए-पुराने फिल्मी तराने, हमारी खूबसूरती के कसीदे सब कुछ तो हम सह जाती हैं। और सोचिए यदि हम मारपीट पर उतर आए हैं तो फिर... अब क्या कहें। बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी। दो घटनाएं मैं कभी नहीं भूलती। नौकरी के दौरान मध्यप्रदेश के सबसे बड़े अखबार की घटना और दिल्ली में डीटीसी बस की यात्रा। दोनों ही अनुभव में गुस्सा बेकाबू हो कर पहले जबान के रास्ते निकला। फिर मुलायम हथेली गोल हो कर तनी हुई मुट्ठी बनी और भीड़ बस निशब्द रही। मध्यप्रदेश के भोपाल के दफ्तर में महिला-पुरुष शौचालय सटा हुआ था। बीच की दीवार छत तक नहीं थी। दो-तीन लड़कियों ने कहा, ‘कोई ऊपर से देखता है।’ जब कोई लड़की शौचालय में जाती थी तो एक लड़का पॉट पर चढ़ कर दूसरी ओर झांकता था। हम दो लड़कियों ने योजना बनाई। वह अंदर गई और मैं बाहर ओट में खड़ी हो गई। वह सिर्फ अंदर गई और कुछ सेकंड बाद ही दौड़ती हुई बाहर आई, ‘आकांक्षा पकड़ो यह रहा।’ मैनेजमेंट ने उसे तुरंत बाहर कर दिया लेकिन बहुत दिनों तक लोगों की निगाहें मुझे चुभती रहीं। लोग कोहनी मार कर बताते थे, ‘देख-देख यही है वह मारने वाली।’ यह घटना जब भी याद आती है लगता है, सदी चाहे बदल जाए, पुरुष मानसिकता नहीं बदल सकती।
आधी रात को बस से उसे उतरवाया
मनीषा भल्ला
रिपोर्टिंग के लिए मेरा गांव-देहात और पिछड़े इलाकों में वक्त-बेवक्त जाना रहता है। ऐसे में छेड़खानी होना मेरे लिए नई बात नहीं। एक घटना मुझे कभी नहीं भूलती। मैं स्टोरी करने के बाद देर रात सिरसा से सरकारी बस से चंडीगढ़ आ रही थी। सर्दी का मौसम था और रात के करीब साढ़े बारह बजे थे। मेरी बगल में बैठा एक आदमी मेरे कंधे पर सिर रखकर सो जा रहा था। मैंने उसे एक-दो दफा टोका। वह संभल जाता लेकिन हर दफा मैं मुझे उसे टोकना पड़ता। फिर हद हो गई जब उसने मेरे कंधे से अपना सिर मेरे कहने पर भी नहीं उठाया। बेशर्मी से सोया रहा। मैं काफी परेशान थी। सवारियों से भरी वह चंडीगढ़ के लिए आखिरी बस थी। सभी तमाशा देख रहे थे। मैं खिड़की की तरफ बैठी थी। खिड़की वाली सीट की बगल में (खिड़की की ओर) इतनी खाली जगह होती है कि पीछे बैठा आदमी आपको छू सकता है। इतने में पीछे बैठे आदमी ने अपने हाथ की उंगलियां उस खाली जगह से मेरी कमर के ऊपर चुभोनी शुरू कर दी। मेरे देखने पर उसने ऐसे मुंह बनाया जैसे मैंने कुछ कर दिया हो। मैं नहीं जानती कि फिर मुझे क्या हुआ,मैंने पंजाबी में घटिया से घटिया गाली देते हुए चिल्लाकर कंधे पर सो रहे आदमी को धक्का दिया वो नीचे गिर गया फिर मैंने उसे लातें मारी, मैं लगातार चिल्ला रही थी। ड्राइवर से बस रोकने के लिए कहा और कहा कि इस आदमी को नीचे उतारो। ड्राइवर नहीं माना। फिर ड्राइवर की ठीक से पंजाबी में लेनी-देनी की। सवारियों ने मुझे समझाया कि माफ कर दो, बेचारा आधी रात में कहां जाएगा। मैंने एक न सुनी, सवारियों को भी खूब कोसा। आखिरकार ड्राइवर को उसे बस से उतारना पड़ा। बस मुझे काटने को दौड़ रही थी लेकिन मुझे घर तो आना ही था। मैं चंडीगढ़ तक सीट पर अकेली बैठकर आई।