चर्चाः हथियारों के दलालों को कानूनी मान्यता | आलोक मेहता
बाद में बोफोर्स रक्षा सौदे में एजेंट द्वारा कमीशन लेने के गंभीर आरोप के कारण राजीव गांधी स्वयं संकट में फंस गए। बोफोर्स घोटाले के असली लाभकर्ता के नाम और प्रामाणिक विवरण आज तक सामने नहीं आ सके। बोफोर्स घोटाले के कारण स्वीडन की कंपनी से आगे लंबी अवधि तक खरीदी भी नहीं हो सकी, जबकि बोफोर्स तोपें कारगिल में भारत की रक्षा में सबसे उपयोगी साबित हुईं। इसी तरह फ्रांस, ब्रिटेन, रूस, चेक गणराज्य, इटली जैसे देशों से कुछ हथियारों की खरीदी को लेकर समय-समय पर भ्रष्टाचार के आरोप लगते रहे।
समस्या यह है कि जिस देश और कंपनी से खरीदी का फैसला होता है, उसकी प्रतियोगी कंपनी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से गड़बड़ियों की सूचनाएं इकट्ठी कर मीडिया और राजनीतिक गलियारों में पहुंचा देती हैं। आरोपों की पुष्टि देर-सबेर हो या न हो, जनता के दिमाग में आशंकाएं पैदा हो जाती हैं। धीरे-धीरे सत्ता में आने के बाद भारतीय जनता पार्टी को भी समझ में आ गया कि हथियारों के सौदे में कोई एजेंट रहने से मूल्यों पर भाव-ताव करने तथा कुछ जानकारियां एकत्र करने में ही भलाई है और घोषित एजेंट होने से बाद में कोई दलाली का आरोप लगने का खतरा कम हो जाएगा। इस नीति के आलोचक पुराने रक्षा विशेषज्ञ यह जरूर कह सकते हैं कि एजेंट दोनों पक्षों से अपना कमीशन लेकर किसी दूसरे नाम और रास्ते से राजनेताओं और संबंधित अधिकारियों को हिस्सा दे सकता है।
भाजपा या इससे पहले कांग्रेस गठबंधन की सरकारों के समक्ष प्रतिबंधात्मक नियमों के उल्लंघन होने पर विदेशी कंपनियों से भविष्य में खरीदी न करने और उन्हें ब्लैक लिस्ट में रखने से समस्या आने लगी थी। नए हथियार या पहले खरीदे हथियारों के कल-पुर्जे और उपकरण लेने में भी रुकावट आ जाती थी। सेना के तीनों अंगों की ओर से हथियारों की खरीदी में विलंब और आवश्यक संसाधनों की कमी से सुरक्षा व्यवस्था के लिए कठिनाइयां बढ़ने लगी थीं। अब एजेंट होने से ब्लैक लिस्ट का चक्कर खत्म हो जाएगा। मतलब दलाली के पुराने ‘पापों’ की फाइलें भी ठंडे बस्ते में चली जाएंगी। जो सत्ता में हो, वही असली सिकंदर और दलाल-दलाली की चांदी।