चर्चाः ‘हुजूर’ के लिए करोड़ों के गुलदस्ते | आलोक मेहता
ब्रिटिश राज में अंग्रेज साहब बहादुर, राजा, जमींदार के दरबार में फल-फूल और उपहार की डलिया लेकर पहुंचना होता था। अंग्रेजों की विदाई हुए 70 वर्ष होने जा रहे हैं, लेकिन नए ‘हुजूर’ कभी सीना तानकर, कभी गर्दन झुकाकर, कभी पैर छूने पर आशीर्वाद देकर प्रसन्नता के साथ गुलदस्ते, उपहार इत्यादि स्वीकारते हैं। बड़े मंत्री और नेता ही नहीं नगरपालिकाओं, नगर-निगमों और जिला परिषद के चुने गए सदस्य सरकारी खजाने से भी इस स्वागत-सत्कार का इंतजाम करवा लेते हैं। ताजी खबर राजा-रानियों की परंपरा वाले राजस्थान से है, जहां स्थानीय नगरपालिकाओं और नगर-निगमों के निर्वाचित सदस्यों के स्वागत में केवल पगड़ियों की खरीदी पर 5 करोड़ रुपये खर्च हुए। इसी तरह 10 करोड़ रुपये के गुलदस्ते और 15 करोड़ रुपये के प्रतीक चिह्न भेंट किए गए। कई नेताओं के पास तो आतिथ्य के नाम पर मिली पगड़ियों के ढेर हो जाते हैं। यह बात अलग है कि सामान्य दिनों में अधिकांश बिना पगड़ी के ही काम पर आते-जाते दिखते हैं। प्रतीक चिह्नों से दुकानदारों की कमाई भले ही हो जाए, नेताओं के कमरों में पर्याप्त जगह नहीं मिल पाती। आप इसे घोटाला भी नहीं कह सकते, क्योंकि पगड़ी, प्रतीक चिह्न आदि की खरीदी के लिए बाकायदा प्रशासकीय टेंडर निकाले जाते हैं। नगरपालिकाओं के कर्मचारियों और मजदूरों के वेतन का इंतजाम मुश्किल से होता है, लेकिन नेताओं की बैठकों, कार्यक्रमों, सुविधाओं में ‘जन सेवा’ के नाम पर खर्च बढ़ता रहता है। भाजपा शासित एक प्रदेश में जल प्रदाय से जुड़े हजारों कर्मचारियों को 32 महीने से पूरा वेतन ही नहीं मिल पाया है। राजधानी दिल्ली के नगर-निगमों के स्कूलों में इस वर्ष 6 लाख बच्चों को पाठ्य पुस्तकें, नोट बुक तक नहीं मिल सकी है। लेकिन पार्षदों और विधायकों के वेतन भत्तों में कोई कमी होने के बजाय बढ़ोतरी हुई है। महाराष्ट्र, गुजरात, आंध्र, तेलंगाना, कर्नाटक, हरियाणा, पंजाब, हिमाचल प्रदेश और बंगाल-केरल में भी नेताओं को फूलमाला, गुलदस्तों की बहार रहती है। महात्मा गांधी और डॉ. बी.आर. अंबेडकर का नाम लेने मात्र से नेताओं को लगता है कि गरीबों का उद्धार हो जाएगा।