चर्चाः ऑपरेशन के बाद सड़क पर सांस | आलोक मेहता
करोड़ों रुपयों के विज्ञापनों में आदरणीय मुख्यमंत्री की आवाज से भी लोगों को समझ में आया कि पंद्रह दिन के अभियान से नेताजी को कफ-खांसी से बड़ी राहत मिल रही है। हाल की राजनीतिक क्रांति ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को प्रचार माध्यमों का सशक्त ‘मॉडल’ भी साबित कर दिया। कारों के लिए ऑड-ईवन के 15 दिवसीय अभियान के बाद केजरीवालजी जनसभा के साथ जश्न मनाने वाले हैं। फिर भी 18 जनवरी को सरकार भविष्य के ‘फार्मूले’ पर विचार करेगी।
चिकित्सा विशेषज्ञ हमेशा यह स्वीकारते हैं कि किसी भी बीमारी के बाद उचित देख-रेख, खान-पान पर नियंत्रण, सही चाल-ढाल, भविष्य में ऑपरेशन के लिए समुचित परीक्षण संसाधनों का इंतजाम करना होता है। यह भी ध्यान रखना जरूरी है कि आपरेशन में किस अन्य अंग पर कितना असर हुआ है। इसलिए अधिकांश समय कार पर चलने वाले हम जैसे लाखों लोगों को संभव है दिल्ली की ‘बिगड़ी ट्रैफिक’ व्यवस्था से थोड़ी राहत मिली। एक कार रखने वाले हमारे जैसे भुक्तभोगियों के कष्ट को सभ्रांत समाज ने थोड़ा कष्ट झेलने पर मुस्कराहट और खेद के साथ राहत दी।
लेकिन मेट्रो और ऑटो पर चलने वालों की सुध न सरकार ने ली और न ही मीडिया ने अधिक महत्व दिया। केजरीवाल के वेतनभोगी सहयोगियों ने सड़कों पर गंदा धुआं छोड़ते ट्रकों-टेंपो पर रोक लगाने का कोई ठोस प्रयास नहीं किया। स्वयं ड्राइव करने वाली महिलाओं को दिक्कत नहीं हुई, लेकिन ड्राइवर पर निर्भर रहने वाली युवा एवं बुजुर्ग महिलाओं के कष्ट पर किसी ने ध्यान नहीं दिया। स्कूलों की छुट्टियां होने से सरकार को बसें मिल गईं। सवाल यह है कि फॉर्मूले को भविष्य में लागू करने के लिए प्रदूषण फैलाने वाले सैकड़ों व्यवसायिक वाहनों पर अंकुश, सैकड़ों नई बसें खरीदने के बाद ट्रैफिक व्यवस्था, मेट्रो में नए कोच लगाने के साथ फेरी बढ़ाने जैसे नाजुक मुद्दों का समाधान संवेदनशील दिल्ली सरकार अकेले कैसे निकालेगी?