चर्चाः जय-पराजय का विवाद | आलोक मेहता
इसलिए जब किसी धार्मिक उपासना स्थल में आराधना का मुद्दा हो या भारत भूमि के प्रति सम्मान व्यक्त करने का विषय हो, दिखावे की अपेक्षा सच्चे मन से समर्पण की अपेक्षा की जाती है। भारत माता की जय बोलने मात्र से असली राष्ट्रभक्त माने जाने की गलतफहमी नहीं पाली जा सकती। हमारे देश में गीता, रामायण, माता-पिता-बच्चे, ईश्वर, संविधान की शपथ लेकर अपनी बात पर विश्वास दिलाने वाले कई धोखेबाज अपराधी मिलते रहे हैं। न्यायालय या संसद में सत्यनिष्ठा की शपथ लेने वाले क्या सभी लोग सचमुच उस कसम को निभाते हैं?ऐसा होता तो सरकार या संसद में बैठे लोग कभी गड़बड़ी और भ्रष्टाचार में नहीं पकड़े जाते। छात्र जीवन में अच्छे भारतीय संस्कारों के साथ मातृभूमि भारत के सम्मान और सुरक्षा की भावना जगाने, राष्ट्रगीत, ध्वज के सम्मान एवं भारत माता की जय इत्यादि की शिक्षा देना निश्चित रूप से आवश्यक है। लेकिन सांप्रदायिक पूर्वाग्रह के साथ सार्वजनिक रूप से भारत की जयकार की अनिवार्यता का कुछ लोगों द्वारा विरोध स्वाभाविक है। वास्तव में यह प्रवृति राजनीतिक-सामाजिक ध्रुवीकरण के उद्देश्य से बढ़ रही है। भारत राष्ट्र की एकता-अखंडता पर ‘जय-पराजय’ का झगड़ा-विवाद ही अनुचित है। हर देश में अपराधी, दिग्भ्रमित अथवा उग्रपंथी बहुत सीमित संख्या में हो सकते हैं। भारत में 99 फीसदी से अधिक आबादी राष्ट्र के प्रति लगाव और सम्मान रखती है। लाखों लोग किसी धार्मिक उपासनास्थल नहीं जाकर भी ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ हैं। दिनभर मेहनत मजदूरी करने वालों को अपने गांव, कस्बे, शहर, संस्कृति और समाज से लगाव है, लेकिन किसी तरह की जयकार के लिए न समय है और न ही उसकी आवश्यकता महसूस होती है। अमेरिका या यूरोप के लोकतांत्रिक देशों में भी राष्ट्रगान पूर्ण सम्मान के साथ गाया जाता है। लेकिन राष्ट्रीय प्रतीक-ध्वज इत्यादि को धार्मिक भावना की तरह नहीं जोड़ा जाता। इसलिए लोकतंत्र में बेहतर यही है कि ऐसे विवादों को अनावश्यक तूल न देकर भारत की एकता-संप्रभुता में जन-जन की भागीदारी की जाए।