चर्चाः लाट साहब को नेक सलाह | आलोक मेहता
हाल में अरुणाचल प्रदेश के राज्यपाल द्वारा कांग्रेस की अंतर्कलह के बाद मनमाने ढंग से विधानसभा सत्र बुलाने की कोशिश को सुप्रीम कोर्ट ने भी अनुचित माना। इसी तरह हाल के महीनों में कुछ राज्यपालों और प्रदेश के मुख्यमंत्रियों के साथ टकराव की घटनाएं बढ़ी हैं। पिछली राजनीतिक पृष्ठभूमि के कारण सांप्रदायिक मुद्दों को भी कुछ राज्यपालों ने अपने ढंग से पेश कर दिया। यह प्रवृत्ति निश्चित रूप से संवैधानिक गरिमा के विपरीत है। वैसे राज्यपालों और प्रदेश की सरकारों या मुख्यमंत्रियों से मत भिन्नता के अवसर पहले भी आते रहे हैं। खासकर कांग्रेस या भाजपा में दशकों तक सक्रिय रहे नेता जब राज्यपाल बनते हैं और भिन्न विचारों वाली पार्टी प्रदेश में सत्तारूढ़ होती है तो मतभेद अधिक सामने आते हैं। सबसे कुख्यात मामला आंध्र में एन.टी.रामाराव की तेलुगु देशम सरकार को हटाने के लिए कांग्रेसी रामलाल द्वारा की गई कार्रवाई से तूफान मच गया था। रामाराव ने दिल्ली में समर्थक विधायकों की परेड करवा दी। केंद्र को निर्णय बदलवाना पड़ा था।
यों समान पार्टी की पृष्ठभूमि के बावजूद बिहार में मुख्यमंत्री भागवत झा आजाद और राज्यपाल गोविन्द नारायण सिंह के बीच टकराव सार्वजनिक हुआ और केंद्र सरकार ने मामले को संभाला। इसी तरह प्रशासनिक या न्यायिक सेवा की पृष्ठभूमि से पहुंचे राज्यपालों की ‘पृष्ठभूमि’ और ‘प्रतिबद्धता’ सवालों के घेरे में आती है। लेकिन संपूर्णानन्द, डॉ. शंकरदयाल शर्मा, सुंदर सिंह भंडारे, नवल किशोर शर्मा, प्रो. सिद्देश्वर प्रसाद, भीष्मनारायण सिंह, गोपालकृष्ण गांधी, भाई महावीर जैसे राज्यपालों ने बड़े सुलझे और निष्पक्ष भाव से मानदंड स्थापित किए। ऐसे मानदंडों को ध्यान में रखकर ‘मोदी युग’ के लाट साहबों को भी निष्पक्ष एवं संवैधानिक लक्ष्मण रेखा का ध्यान रखना होगा।