चर्चाः सरकार को प्रतीक्षा हत्या की | आलोक मेहता
प्रदर्शनों के दौरान भीड़ और पुलिस के बीच भिड़ंत, सांप्रदायिक उपद्रव अथवा सीमावर्ती क्षेत्रों में रिपोर्टिंग के दौरान पत्रकारों को चोट लगने या जान जाने तक के खतरे रहते हैं। यही नहीं खोजपूर्ण रिपोर्टिंग और लेखन के बाद कुछ राजनीतिक, सांप्रदायिक अथवा आपराधिक गुटों से धमकी और हमले की घटनाएं भी होती रही हैं। लेकिन यह पहला अवसर है, जबकि न्याय के मंदिर में पत्रकारों पर हमले के समय पुलिस मूकदर्शक बनी रहने के साथ वहां से भाग जाने का निर्देश दे एवं सरकार भी ऐसी हिंसक घटना को गंभीरता से न ले। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में भारत विरोधी नारेबाजी और बयानों को किसी भी मीडिया ने उचित नहीं बताया। न ही अखबारों और टी.वी. चैनलों के पत्रकार किसी पूर्वाग्रह से प्रेरित रहे हैं। मीडिया का एक वर्ग तो इन दिनों बहुत हद तक भाजपा सरकार के नेताओं और विचारों का समर्थन करने से आलोचना का शिकार हो रहा है। रोजाना रिपोर्टिंग करने वाले युवा संवाददाता तो शुद्ध प्रोफेशनल ढंग से काम कर रहे हैं। ऐसी स्थिति में पत्रकारों या सरकार के साथ असहमति रखने अथवा आलोचना करने वाले कलाकारों पर देश के प्रमुख दलों के समर्थक हमले करते रहेंगे तो लोकतंत्र का क्या होगा? पिछले दिनों अहमदाबाद में शाहरुख खान की कार पर हमला हुआ। फिर मंगलवार को दिल्ली में अपने पुराने कॉलेज पहुंचने पर सांपद्रायिक कट्टरपंथी दस-बीस लोगों द्वारा विरोध प्रदर्शन करना यह साबित करता है कि सरकारी शह से उपद्रवियों के हौसले बढ़ रहे हैं। यह समय सरकार, सत्तारूढ़ दल और संसद को लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा के लिए आत्म मंथन का है।