चर्चाः चुनाव में धन का मायाजाल जारी | आलोक मेहता
असली समस्या राजनीतिक दलों द्वारा मतदाताओं को रिझाने के लिए हरसंभव हथकंडे अपनाने की है। चुनाव आयोग ने उम्मीदवारों के खर्च की सीमा तय कर रखी है। लेकिन न केवल राजनीतिक दल बल्कि समर्थकों द्वारा बनाए गए संगठन बड़े पैमाने पर प्रचार करते हैं और रात के अंधेरे में एजेंटों के जरिये गरीब बस्तियों में नोट बांटते हैं। गरीब मतदाताओं के समूह के लिए ठेकेदारी प्रथा भी चलती है। पांच सौ रुपये से लेकर परिवार में सदस्य ज्यादा होने पर बीस-पच्चीस हजार तक बांटे जा रहे हैं। धनराशि बांटने वाले माफिया की तरह मतदाताओं को धमकाकर भी रखते हैं। गोपनीयता की सारी व्यवस्था के बावजूद मतदान केंद्रों की मशीनों से मतगणना के दौरान क्षेत्र विशेष में पड़े वोट के झुकाव की जानकारी राजनीतिक ठेकेदारों को मिल जाती है। कुछ बस्तियों में गरीब मतदाताओं के आधार कार्ड तक जमानत के रूप में माफिया अपने पास रखवा लेता है। असम और पश्चिम बंगाल में बांग्लादेश से वर्षों पहले आ चुके लोगों के मतदाता बनने पर बार-बार विरोध की आवाज उठती है। लेकिन भारतीय नागरिक बन जाने के बाद उनके मताधिकार पर आपत्ति कैसे उठाई जा सकती है? हां, उन्हें धन-बल और सांप्रदायिक जहर पिलाकर वोट डलवाने के प्रयासों पर रोक लगाने के लिए सभी दलों को कोशिश करनी चाहिए। तमिलनाडु में तो छापों के दौरान पांच सौ करोड़ रुपये तक बरामद हुए। छापों में नोट जब्त हो सकते हैं, लेकिन लोकतंत्र की गलियों को गंदा करने वालों को कितना दंड मिलता है? इसी तरह चुनावी हिंसा के पीछे रहे राजनेताओं पर कहां कार्रवाई होती है। पश्चिम बंगाल ही नहीं तमिलनाडु और केरल में भी चुनावी नियमों के उल्लंघन, गड़बड़ियों की हजारों शिकायतें चुनाव आयोग में पहुंची हैं। शिकायतों की सुनवाई महीनों ही नहीं वर्षों तक चलती रहती है। कुछ मामलों में चुनाव तक रद्द हो जाते हैं। इस दृष्टि से राजनीतिक दलों को नए सिरे से चुनाव सुधार कानून संशोधनों के साथ आचार संहिता लागू करनी चाहिए। निष्पक्ष और कम खर्चीले चुनाव से ही लोकतंत्र मजबूत होगा।