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18 February 2016

चर्चा : कानून के पहरेदारों की आचार संहिता। आलोक मेहता

करोड़ों लोग काला कोट पहने वकील और न्यायालय की शरण में बड़ी उम्मीद के साथ जाते हैं। सरकार, प्रशासन, पंचायत, समाज से कोई कष्ट होने पर अदालत पहंुचते हैं। सामान्य आदमी के लिए न्यायाधीश और डॉक्टर केवल  ईश्वर की तरह वंदनीय हैं। इसलिए दिल्ली की अदालत में कानून के पहरेदारों द्वारा हंगामे और मारपीट की घ्‍ाटना से सुप्रीम कोर्ट का चिंतित होना स्वाभाविक है। पराकाष्ठा यह है कि कुछ वकीलों ने बाकायदा टी.वी. इंटरव्यू में कहा कि वे राष्ट्र विरोधी लोगों के देखकर उत्तेजित हुए और संयम नहीं रख सके। यही नहीं अदालत परिसर में ‘राष्ट्रद्रोही’ के आरोपी की सुनवाई के दौरान जमकर हाथापाई को वकील सामान्य मानते हैं। इस मुद्दे पर भिन्न राय होने से वकीलों के भी दो गुट हो गए और भिडंत हो गई।

अपने मुवक्किल के पक्ष-विपक्ष में कानूनी बहस करने वाले क्या कुश्ती, कबड्डी और डंडे या बंदूक से फैसला करना चाहेंगे? बार काउंसिल ने भी इस घटना की बात मानी है। लेकिन सवाल यह है कि सरकार, पुलिस, सत्तारूढ़ पार्टी हिंसक घटनाओं के दृश्य टी.वी., मोबाइल फोन पर देखने के बावजूद किस सबूत की अपेक्षा करते हैं? वकीलों और डॉक्टरों के लिए आचार संहिता निर्धारित है। वकील अपनी धारदार बहस के ‌‌जरिये किसी भी अपराधी, आतंकवादी को कठघरे में खड़ा कर दंडित करवा सकते हैं। उन्हें अपने कानूनी हथियार पर अधिक विश्वास हाेना चाहिए। इसी तरह बदले हुए समय में अनुभवी और योग्य कानूनविदों को अपनी आचार संहिता की समीक्षा कर वकालत का प्रमाण-पत्र जारी करने के नए मानदंड तय करने चाहिए। अनुचित गतिविधियों में श‌ामिल होने और स्वयं कानून का उल्लंघन करने वालाें पर अविलंब कार्रवाई का प्रावधान होना चाहिए। अदालत और अस्पताल की पवित्रता को अक्षुण्ण रखने के लिए न्यायालय भी नई आचार संहिता के लिए दिशा-निर्देश दे सकती है।

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TAGS: charcha, alok mehta, bar council, चर्चा, आलोक मेहता, बार काउंसिल
OUTLOOK 18 February, 2016
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