चर्चाः राष्ट्रवादी ‘अपनों’ पर लागू करें कानून | आलोक मेहता
इस बार भी कुछ राजनीतिक दल इस पहल को उ.प्र. विधानसभा के चुनाव, सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की मंशा से जोड़ रहे हैं। विशेष रूप से मुस्लिम पर्सनल कानून के नाम पर तलाक के अधिकार और चार पत्नियों की छूट को उठाया जाता है।
इसमें कोई शक नहीं कि मुस्लिम बहुल करीब 23 देशों में इस तरह की बहु विवाह व्यवस्था खत्म हो चुकी है। भारत में भी मुस्लिम समाज का एक बड़ा वर्ग एवं महिलाएं बहु विवाह के विरोध में हैं। इस प्रावधान का उपयोग जागरूकता एवं सीमित संसाधनों के कारण निम्न-मध्यम आय वर्ग में कम होता गया है। गरीब आदमी एक बीवी और दो-चार बच्चों का पालन पोषण ही मुश्किल से कर पाता है तो दो-चार बीवियों को कहां रख सकता है? इसलिये इस बदलाव को व्यापक समर्थन मिल सकता है। लेकिन भारतीय समाज में एक बड़ा मुद्दा यह है कि दहेज निषेध, बाल विवाह पर प्रतिबंध, पैतृक संपत्ति में बेटी को समान अधिकार के कानूनों पर कितना अमल हो पा रहा है? हिंदू संगठनों ने बहुसंख्यक समुदाय को ऐसे कानूनों पर अमल के लिए कितना नैतिक या कड़ा कानूनी दबाव बनाया है?
जागरूकता एवं आर्थिक प्रगति के साथ देश के विभिन्न भागों में दहेज मांगने वाले और बहुओं पर अत्याचार, हत्याओं तक की घटनाओं में कई गुना बढ़ोतरी हुई है। सभ्य संपन्न व्यापारी हों या नेता अथवा शिक्षित अधिकारी, इंजीनियर, डॉक्टर या प्रबंधक- लाखों रुपयों का दहेज लिया-दिया जा रहा है। दहेज लेन-देन पर रोक लगाने में क्या विवाह मंडप में उपस्थित धर्मगुरू-पंडित ने विवाह संस्कार करने से इनकार किया है? इसी तरह संपत्ति में बेटियों को हिस्सा देने के कानून पर अमल के लिए सामाजिक धार्मिक संगठनों ने कितने अभियान चलाए हैं। भाई-बहन का रिश्ता निभाने के लिए धुआंधार प्रचारात्मक बातें होती हैं, लेकिन संपत्ति में बहन को समान हिस्सा देने वाले लोगों की संख्या बहुत कम है। यही नहीं कानून का सहारा लेने पर दस-बीस वर्ष लग जाने की बात समझाई जाती है और परिवारों में कड़वाहट बढ़ जाती है। इस कारण बहनें चुप लगाकर संतुष्ट रहती हैं। समान नागरिक कानून की राजनीति से अधिक जरूरी राजा राममोहन राय और महात्मा गांधी के आदर्शों को सामने रखकर पहले से बने कानूनों को लागू करवाने के लिए हर संभव प्रयास होने चाहिए।