चर्चाः स्नान राजनीति का नया रूप | आलोक मेहता
भाजपा शासित मध्य प्रदेश के ऐतिहासिक नगर उज्जैन में सिंहस्थ कुंभ के अवसर पर 11 मई को समरसता बनाम दलित स्नान का आयोजन किया जा रहा है। गंगा, यमुना, गोदावरी और क्षिप्रा में स्नान भी क्या जाति के आधार पर बंट सकते हैं? इसी दिन भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह, मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान सहित कई वरिष्ठ नेता भी एक कार्यक्रम के माध्यम से साधु-संत समाज और धर्मप्राण जनता को भाजपा से जोड़ने का प्रयास करेंगे। वैसे इस समय भाजपा उ.प्र. और पंजाब विधानसभा के अगले वर्ष के प्रारंभ में होने वाले चुनाव में दलित वोट के खजाने पर कब्जा करने के लिए हर संभव तैयारी कर रही है। उ.प्र. में सुश्री मायावती की बहुजन समाज पार्टी बड़ी चुनौती है और पंजाब में भी दलित मतदाता निर्णायक भूमिका निभाएंगे। भाजपा इन चुनावों को 2018-2019 के चुनावों का आधार भी मान रही है। इसलिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा ने सिंहस्थ कुंभ के बहाने देश भर के दलित साधु-संतों को निमंत्रण और हिंदू धार्मिक संस्कृति के अनुरूप पीले चावल भेजे हैं। भाजपा ने मेले में बाकायदा दीनदयालपुरम बनाया है। इसी मंडप में बड़े पैमाने पर विचार-विमर्श का कार्यक्रम होगा, जिसके लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी पहुंचेंगे। लेकिन दलितों के लिए अलग से स्नान के मुद्दे पर दो शंकराचार्यों और अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष सहित कई संतों ने विरोध किया है। शंकराचार्य अधीक्षानंद ने तो यहां तक कहा दिया है कि ‘दलित स्नान’ के आयोजन से समरसता के बजाय भेदभाव बढ़ेगा। इसी तरह डॉ. भीमराव अंबेडकर के पोते आनंदराव अंबेडकर ने भी इसे दलित उत्थान विचारों के विपरीत बताया है। राजनीति का यह दांव-पेच आधुनिक भारत की दावेदारी पर भी प्रश्न-चिह्न लगता है। हाल ही में अमेरिका की एक रिपोर्ट में भारत में धार्मिक असहिष्णुता की आलोचना का सरकार ने विरोध किया है। यह ठीक है कि हमें अमेरिका से या किसी देश के प्रमाण-पत्र की जरूरत नहीं है लेकिन जातिगत खेमे और अल्पसंख्यकों को अपनी शर्तों पर झुकाने के प्रयासों से न केवल छवि खराब होती है, वरन लोकतांत्रिक आधुनिक प्रगति के रास्ते में भी कांटे बिछाए जाते हैं। संकीर्ण राजनीति पर लगाम कसने के लिए जिम्मेदार पार्टियों को ही गंभीरता से आत्ममंथन करना होगा।