चर्चाः नेता, सेवक, बाबू या राजा । आलोक मेहता
महात्मा गांधी, भीमराव अंबेडकर, श्यामाप्रसाद मुखर्जी, राममनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण, लाल बहादुर शास्त्री, दीनदयाल उपाध्याय का नाम लेकर राजनीति करने वाले राजनीतिक नेता इन दिनों अपने को किस रूप में देखना या दिखाना चाहते हैं? क्या वे सेवा के लिए राजनीति में हैं अथवा वे अपने को सरकारी बाबू तहसीलदार से सचिव स्तर तक मानते हैं अथवा वे आधुनिक लोकतंत्र के राजा हैं, जो स्वयं अपने वेतन-भत्ते, सुविधाएं सरकारी खजाने से प्राप्त कर लेते हैं।
वेतन-सुविधाएं बढ़ाने के मुद्दे पर अधिकांश राजनीतिक दलों में सहमति हो जाती है। वे मजदूर-किसानों की आवाज उठाते हैं, लेकिन उनकी आमदनी के बराबर आय की बात नहीं सोच सकते। तर्क यह दिया जाता है कि उन्हें बहुत लोगों से जुड़ना होता है और महंगाई बढ़ती जा रही है। जो सिपाही पुलिस में नौकरी करने आता है, क्या उसे सीमित आमदनी और दिन- रात सजग रहकर कर्तव्य निभाने का अंदाज नहीं होता। पुलिस के सिपाही बेईमान और भ्रष्ट भी हो सकते हैं, लेकिन हजारों-लाखों ईमानदारी से भी ड्युटी करते हैं। सरकारी अस्पतालाें के डॉक्टर बेहद काबिल होते हैं, लेकिन पांच सितारा निजी अस्पतालों की तुलना में पांच गुना कम वेतन पाते हैं। इसलिए राजनीति में जनता के बीच सक्रिय रहने वाले क्या सीमित न्यूनतम आमदनी के साथ काम नहीं कर सकते हैं? पिछड़े प्रदेशों में ही नहीं संपन्न प्रदेशों में किसानों, भूमिहीन श्रमिकों की तरह शिक्षकों, कर्मचारियों को बेहद कम वेतन मिलता है अथवा महीनों तक नहीं भी मिलता। सांसदों-विधायकों की तरह उन्हें स्वास्थ्य की श्रेष्ठ सुविधाएं नहीं मिलतीं। सामान्य नागरिक को शुद्ध पेयजल और न्यूनतम स्वास्थ्य सुविधाएं तक मिल पाना मुश्किल है। ऐसी स्थिति में राजनीतिक नेता हर महीने एक से तीन लाख तक की आमदनी और सुविधाएं लेंगे, तो भविष्य में ‘सेवा’ का आदर्श क्या बनाएंगे?