चर्चाः रंग और रोशनी से राजनीति | आलोक मेहता
जो राजीतिक पार्टियां जवाहरलाल नेहरू, राजेन्द्र प्रसाद, इंदिरा गांधी, दीनदयाल उपाध्याय, जयप्रकाश नारायण, राममनोहर लोहिया, ज्योति बसु, अटल बिहारी वाजपेयी के नाम और काम के बल पर राजनीति करती हैं, उनके नेता प्रतिपक्ष के नेताओं के विरुद्ध इतने तीखे वाक प्रहार करने लगे हैं, जिससे परस्पर सद्भावना और राष्ट्र निर्माण का कार्य मुश्किल हो जाता है। होली के रंगों और उससे जुड़ी भावना से क्या राजनेता कोई सबक नहीं ले सकते हैं? रंग- कच्चा हो या गहरा- जल्द धुल जाए और फूलों की खुशबू की तरह राजनीतिक रंग संपूर्ण वातावरण को लाभान्वित क्यों नहीं कर सकता है? समाज के हर वर्ग को भड़काने, बांटने के प्रयासों से उनके वायदे और युवाओं के सपने कैसे पूरे हो सकते हैं? कहीं विश्वविद्यालयों की राजनीति में आग लगाई जा रही है, कहीं जाति और धर्म के नाम पर गांव, कस्बों और प्रदेशों को उत्तेजित किया जा रहा है। विजयादशमी पर रावण का दहन या होली पर होलिका दहन का असली संदेश तो बुराइयों को नष्ट करना रहा है। श्रीकृष्ण की होली हो या लोकमान्य तिलक का गणेश उत्सव- सामाजिक एकता और उत्थान का संदेश देता है। गणेशोत्सव या होली मनाने वाला एक वर्ग सांप्रदायिक तेवर क्यों अपनाने लगता है? डॉ. अंबेडकर का नाम लेकर यह कहा जाना कितना दुःखद है कि आजादी के 68 साल बाद भी दलितों की स्थिति में सुधार के लिए कुछ नहीं हुआ और अब सचमुच कल्याण होगा। आखिरकार इसी भारत में दलित राष्ट्रपति हुए हैं। प्रदेशों के मुख्यमंत्री बने हैं। निश्चित रूप से दलितों को समाज के साथ आगे बढ़ाने के लिए योजनाओं और कार्यक्रमों का क्रियान्वयन सही ढंग से होना चाहिए। लेकिन अतीत के घाव उभारने के बजाय समाज को स्वस्थ और सशक्त बनाने की कोशिश क्यों नहीं हो सकती है? समाज में शिक्षा, स्वास्थ्य, पेयजल, सिर ढंकने लायक छत की व्यवस्था के लिए राजनीतिक सर्वानुमति के साथ काम क्यों नहीं हो सकता है? मतलब, होली के अवसर पर समाज को जगाने वाले नेता कटुता के गुब्बारे फोड़कर रचनात्मक सहयोग-संबंधों के रंग बिखरने के पुनीत कार्य का संकल्प भी ले सकते हैं।