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19 February 2016

चर्चाः झंडे की शान में जुड़ी आन | आलोक मेहता

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यों अन्य विश्वविद्यालयों अथवा संस्‍थानों, चौराहों, कारखानों, गांवों की पंचायतों में भी तिरंगा फहराने से प्रसन्नता ही होगी। राष्ट्रध्वज और राष्ट्रगान के प्रति सम्मान व्यक्त करना हर नागरिक का कर्तव्य है। राष्ट्रधर्म, राष्ट्रीय कर्तव्य और सेवा से बड़ा और कोई धर्म नहीं हो सकता। कुछ वर्ष पहले सुप्रीम कोर्ट ने तिरंगे को सम्मान के साथ हर घर और हर व्यक्ति की कमीज-कोट पर लगाने की अनुमति दे दी। लेकिन जरा याद कीजिए, महाराष्ट्र जैसे कुछ राज्यों को छोड़कर राजधानी दिल्ली तथा अन्य प्रदेशों में अब पहले की तरह सिनेमाघरों में फिल्म से पहले या अंत में राष्ट्रगान नहीं बजता। सिनेमाघर अत्याधुनिक और महंगे हो गए।

राज्य सरकारें मनोरंजन कर से भी करोड़ों रुपये कमाती है, लेकिन राष्ट्रगान तो दूर रहा, राष्ट्र की प्रगति की झलक देने वाली फिल्म डिवीजन की लघु फिल्में भी अब देखने को नहीं मिलती। इनका स्‍थान कमाई वाली विज्ञापन फिल्मों ने ले लिया। कई स्‍थानों पर राष्ट्रगान शुरू होने पर लोग बाहर भागने की कोशिश करते दिखते हैं। दूसरी तरफ, तिरंगे-राष्ट्रधर्म की बात करने वाले सत्तारूढ़ राजनीतिक दल ध्वज के मूलभूत आदर्शों-बहुरंगी संस्कृति और सामान्य नागरिकों के हितों से जुड़े संवैधानिक अधिकारों की रक्षा के लिए समुचित कदम नहीं उठाते। जिन झोंपड़ियों पर तिरंगा लगता है, उनके बच्चों को अच्छा स्कूल क्यों नहीं मिलता? अस्पतालों पर तिरंगा दिखता है, लेकिन गरीबों को समुचित इलाज की व्यवस्‍था क्यों नहीं होती? तिरंगा लेकर कदमताल करने वालों पर राजनीतिक संरक्षण प्राप्त संगठनों, गुटों और सांप्रदायिक तत्वों द्वारा हमले क्यों किए जाते हैं? तिरंगे की शान के साथ संविधान प्रदत्त नागरिकों की आन की रक्षा के लिए सरकारें सही मायने में कृतसंकल्प क्यों नहीं होती?

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TAGS: तिरंगा, भारतीय, मानव संसाधन मंत्रालय, सिनेमाघर, विश्वविद्यालय, आलोक मेहता
OUTLOOK 19 February, 2016
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