चर्चाः प्रचार, पैसा और पद |आलोक मेहता
नरेंद्र मोदी, नीतीश कुमार, अरविंद केजरीवाल ने भारतीय चुनाव को अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावी फार्मूले से नया रंग दे दिया है। जनता से संवाद और रणनीति के लिए आधुनिक संचार माध्यमों को श्रेष्ठ माना और टीवी, मोबाइल, फेसबुक, टि्वटर का इस्तेमाल किया। नियमानुसार दिए जाने वाले विज्ञापनों और पोस्टरों के अलावा जहां जरूरत हुई अखबार और टीवी चैनलों पर पेड न्यूज का हथकंडा भी अपनाया। लोकसभा, विधानसभा और स्थानीय चुनावों में भी प्रचार-प्रसार के लिए करोड़ों खर्च होने लगे हैं लेकिन क्या यह माना जाए कि मीडिया प्रबंधकों का प्रचार तंत्र जनता से जुड़े स्थानीय नेताओं-कार्यकर्ताओं की मेहनत का स्थान ले लेगा?
यदि भाजपा-संघ, कांग्रेस या अन्य क्षेत्रीय दलों के निष्ठावान कार्यकर्ता काम नहीं करते तब भी क्या उनकी विजय प्रचार से हो जाती? नीतीश गांव-गांव नहीं घूमते और लालू लालटेन-लाठी लेकर नहीं भागते तो क्या ‘पीके’ का चमत्कार हो जाता? बहरहाल ऐसा लगता है कि शीर्ष पदों के लिए पैसा और प्रचार पर अंधविश्वास का खुल कुछ समय तो जारी रहेगा।