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13 April 2016

चर्चाः रक्षा नीति में क्रांतिकारी बदलाव | आलोक मेहता

पीआईबी

इससे पहले 65 वर्षों में कांग्रेस, भाजपा, जनता पार्टी और गठबंधन सरकारों ने कभी अमेरिका के ऐसे प्रस्तावों को नहीं माना था। नेहरू से अटल बिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्रित्व काल तक भारत सरकार अंतरराष्‍ट्रीय सामरिक राजनीति में पश्चिम यूरोप की तरह अमेरिका का सैन्य साझेदार नहीं बना। इसका कारण केवल सोवियत संघ- बाद में रूस तथा उससे जुड़े देशों के साथ रहे पुराने संबंधों के अलावा खाड़ी के देशों एवं चीन के साथ संबंधों को संतुलित बनाए रखना थी था। ईरान-इराक पिछले वर्षों में अमेरिका से संघर्ष करते रहे हैं।

1962 के युद्ध के कटु अनुभवों के बाद 1985 से चीन के साथ संबंधों के सामान्यीकरण के ‌लिए राजीव गांधी, नरसिंह राव, अटल बिहारी वाजपेयी, मनमोहन सिंह और स्वयं नरेंद्र मोदी ने भी कई ठोस कदम उठाए। चीन ने अमेरिका के साथ आर्थिक संबंध बढ़ाए हैं और दोनों देशों के राष्‍ट्रपति भी मिलने लगे हैं। लेकिन सामरिक दृ‌ष्टि से अमेरिका और चीन के बीच समुद्री सीमाओं को लेकर तनाव बनता रहता है। अमेरिका ने चीन को एशिया में बांधे रखने के लिए जापान, दक्षिण कोरिया और पाकिस्तान सहित खाड़ी के कुछ देशों के साथ गठबंधन की तरह सैन्य संबंध बना रखे हैं। उसका तर्क रहता है कि हिंद महासागर और एशिया प्रशांत क्षेत्र में वह चीन को नियंत्रित रखना चाहता है।

दूसरी तरफ भारत को पाकिस्तान के साथ युद्ध की स्थिति में पहले उसने पाकिस्तान का साथ दिया। 1971 के युद्ध में तो अमेरिका ने भारत के विरुद्ध नौ सैनिक बेड़ा ही भेज दिया था। यह बात अलग है कि वह सीधे युद्ध में शामिल नहीं हुआ और बांग्लादेश भी बन गया। भारत के शीर्ष सामरिक विशेषज्ञों, राजनयिकों तथा सैन्य प्रमुखों ने सदा संतुलित नीति पर जोर दिया। चीन से भारत अकारण दुश्मनी लेना नहीं चाहता है। पाकिस्तान की तरह उसकी सीमाएं भी हमसे लगी हुई हैं। अमेरिका के खेमे में शामिल होने पर चीन, रूस सहित कई देशों के साथ दूरगामी संबंधों पर असर का खतरा है। लेकिन इन खतरों के बावजूद संभव है वर्तमान मोदी सरकार अपनी सैन्य शक्ति के विस्तार के ‌लिए अमेरिका से नए समझौते करने जा रही है।

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TAGS: अमेरिका, भारत, रक्षा सहयोग, रक्षा नीति, क्रांतिकारी बदलाव, भारतीय सैनिक अड्डे, विमान, नौ सैनिक पोत
OUTLOOK 13 April, 2016
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