चर्चाः न्याय के तराजू पर जंग के खतरे | आलोक मेहता
लोकतांत्रिक विकास के साथ सामान्य जन हर क्षेत्र में परिवर्तन, अधिकारों की रक्षा एवं समय पर सही न्याय की अपेक्षा करने लगे हैं। राजनीतिक एवं प्रशासनिक क्षेत्र में गड़बड़ी और भ्रष्टाचार से त्रस्त लोगों के पास न्यायालय से राहत की उम्मीद रहती है। सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति टी.एस. ठाकुर ने रविवार को उत्तर प्रदेश के एक समारोह में स्पष्ट शब्दों में स्वीकारा कि ‘न्यायपालिका विश्वसनीयता के गंभीर संकट का सामना कर रही है। इस दृष्टि से न्यायालयों को प्रजातांत्रिक समाज में संवाद और असहमतियों की रक्षा सुनिश्चित करनी चाहिये।’ इसी अवसर पर राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी द्वारा न्याय मिलने में देरी पर व्यक्त की गई चिंता का समर्थन भी श्री ठाकुर ने किया। यह पहला अवसर नहीं है, जबकि न्याय में देरी का मुद्दा उठा है। सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश भी इस स्थिति पर चिंता व्यक्त कर चुके हैं। सुप्रीम कोर्ट से निचली अदालतों तक हजारों मामले विचाराधीन हैं, क्योंकि न्यायाधीशों की संख्या ही कम है। देश की उच्च अदालतों में न्यायाधीश के 1056 पद हैं, लेकिन केवल 591 पर ही न्यायाधीश कार्यरत हैं। इसी तरह निचली अदालतों में भी क्षेत्र की आबादी के अनुपात में न्यायाधीशों की बड़ी कमी है। पराकाष्ठा यह है कि अदालतों में लंबित मामलों की वजह से सैकड़ों निरपराध लोग जेलों में भी सड़ रहे हैं। संपत्ति के मामले बीस-तीस वर्ष तक चलने से अपीलकर्ता की मृत्यु हो जाती है और परिवार मुसीबत में रहते हैं। दूसरी तरफ प्रभावशाली नेता, अफसर या व्यापारी गंभीर आपराधिक मामलों की सुनवाई की तारीखें बढ़वाकर या निचली अदालत के निर्णय को ऊपरी अदालत में चुनौती देकर सत्ता-संपन्नता का लाभ उठाते रहते हैं। इस बीच न्यायाधीशों की नियुक्तियों पर सरकार और न्यायपालिका के बीच टकराव के कारण नया संकट पैदा हुआ है। लोकतंत्र में न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर सत्ता की छाया नहीं होनी चाहिये। संसद कानून बना सकती है, लेकिन न्यायपालिका ही उनका पालन करवाएगी। इसी तरह अदालती फैसलों को प्रशासकीय व्यवस्था लागू करती है। समय रहते न्यायपालिका की तराजू पर दिख रही जंग साफ की जानी चाहिये।