चर्चाः सत्ता के लिए रास्ता वही पुराना | आलोक मेहता
पहले की तरह मंदिर-मस्जिद, स्वदेशीकरण, हिन्दुत्व, कश्मीर की धारा 370 में बदलाव को कहीं महत्व नहीं दिया गया। बैठक से पहले प्रधानमंत्री ने प्रायोजित सूफी सम्मेलन को भी संबोधित किया ताकि अल्पसंख्यकों के बीच भी जगह बने और कट्टरपंथियों को आतंकवाद से बचने की सलाहपूर्ण चेतावनी दी जा सके। भाजपा अगले महीने होने वाले 5 विधानसभाओं के चुनावों से अधिक उत्तर प्रदेश, पंजाब विधानसभाओं के अगले वर्ष होने वाले चुनाव के साथ 2019 की लोकसभा का आधार बनाने की तैयारी कर रही है। श्यामाप्रसाद मुखर्जी और दीनदयाल उपाध्याय से अधिक डॉ. भीमराव अंबेडकर का नाम लेकर उन्हें अवतार की तरह पेश किया जा रहा है, ताकि गांधी-नेहरू और उनकी कांग्रेस की यादों को भुलाया जा सके। इसमें सफलता मिले या नहीं, लेकिन यह मानना होगा कि देश के 60 प्रतिशत से अधिक लोग गांवों में रहते हैं और हमारी अर्थव्यवस्था कृषि पर अधिक निर्भर है। राष्ट्रीय स्तर पर ग्रामीण क्षेत्रों में भाजपा का प्रभाव सीमित रहा है। वह शहरी क्षेत्रों और व्यापारी वर्ग के बल पर कुछ राज्यों में अधिक सफल हुई। कांग्रेस की विफलताओं और भ्रष्टाचार के कारण विकल्प के रूप में जिन राज्यों में उसका ही वर्चस्व था, वहां दो दशकों से सरकारें बनती गईं। 2014 के लोकसभा चुनाव में सफलता के बाद धीरे-धीरे यह धारणा बनने लगी कि मोदी सरकार केवल आर्थिक प्रगति के लिए देश-विदेश की कंपनियों को लुभाने में लगी है। गांव उसकी नजरों से दूर होते जा रहे हैं। इस छवि को धोने के लिए नए वित्तीय वर्ष के बजट में गांव और किसान की दशा-दिशा सुधारने पर अधिक महत्व दर्शाया गया। उ.प्र. में मायावती की बहुजन समाज पार्टी के प्रभाव को संतुलित करने और नेहरू से रहे वैचारिक मतभेदों के घाव हरे करने के लिए दलित मसीहा अंबेडकर को केंद्र बिंदु में लाया जा रहा है। जरूरत इस बात की है कि ग्रामीण या शहरी क्षेत्रों में दलितों की शिक्षा और स्वास्थ्य को मोदी सरकार अधिक प्राथमिकता दे। सूफी सम्मेलन और संगीत के बजाय अल्पसंख्यकों के सर्वांगीण विकास कार्यक्रमों को क्रियान्वित करे एवं भाजपा-संघ से जुड़े संगठनों और नेताओं के जहरीले वक्तव्यों एवं गतिविधियों पर नियंत्रण लगाए। कांग्रेस ने यदि दलितों और अल्पसंख्यकों के हितों के नाम पर राजनीति की तो भाजपा साफ सुथरे ढंग से कुछ व्यावहारिक लाभ देने का प्रयास करे।