चर्चा: बैंकों में हेराफेरी का पाप | आलोक मेहता
उदार अर्थव्यवस्था और प्रतियोगिता के दौर में बैंकों ने अरबों रुपयों का कर्ज निजी कंपनियों को निर्माण, विस्तार और व्यापार के लिए दिया। कई बड़ी और मध्यम या छोटी कंपनियों ने हिसाब की हेराफेरी करके कमाई का बड़ा हिस्सा ही नहीं कुछ हद तक मूलधन ही अलग निकाल लिया और कंपनी की हालत खस्ता दिखाकर कर्ज से मुक्ति पा ली। जहां सामान्य नागरिक एक-दो लाख रुपये का कर्ज किस्तों के साथ चुकाने में चुस्त रहे या थोड़ी सी चूक होने पर बैंक के वसूली दबाव में फंस गए, वहां हवाई कंपनी, बड़े कारखाने अथवा निर्यातक बैंकों का बकाया चुकाने के बजाय पूरी अर्थव्यवस्था को क्षति पहुंचा गए।
यों दुनिया भर में बैंक ग्राहकों को अग्रिम देते हैं और निजी कंपनियों के विस्तार में साझेदारी भी करते हैं लेकिन भारत में उदारवादी और पुरानी समाजवादी सत्ता व्यवस्था की हर कमजोरी का लाभ एक बड़े वर्ग ने उठाया। इसीलिए अब रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन को कहना पड़ा कि बैंकिंग व्यवस्था में बड़ी सर्जरी की जरूरत है। अंतरराष्ट्रीय आर्थिक झटकों से भी भारत की अर्थव्यवस्था डगमगा रही है। दुनिया में कच्चे तेल के मूल्य में भारी गिरावट से भारत सरकार एक हद तक गंभीर संकट से बची हुई है। लेकिन यह समय व्यापक स्तर पर गड़बड़ियों को रोकने के लिए कठोरतम कदम उठाने का है। डॉलर के मुकाबले रुपये की कीमत मजबूत होने के बजाय दो वर्ष पहले की कमजोर हालत में पहुंच गई है। शेयर बाजार में तीन लाख करोड़ डूब गया है। यह आर्थिक भूचाल है। कृषि आधारित ग्रामीण अर्थव्यवस्था सारी समस्याओं के बावजूद भारत को संभाले हुए है। ब्राजील, ग्रीस जैसे देशों की तरह हाहाकार अब भी नहीं है। लेकिन राजनीतिक पूर्वाग्रहों, अनियमितताओं और भ्रष्टाचार पर कड़े अंकुश से भारत की आर्थिक प्रगति सही रास्ते पर लाने की उम्मीद बनी रह सकती है।