चर्चाः दाल खट्टी, चीनी कड़वी | आलोक मेहता
पिछले वर्ष की तरह ही इस बार फिर सामान्य उपभोक्ता के लिए दाल और चीनी के दाम लगातार बढ़ रहे हैं। सूखा तो अब पड़ रहा है। गन्ना तो पहले ही आ चुका था। लेकिन किसानों को गन्ने का सही मूल्य नहीं मिलने के कारण पिछले पांच वर्षों की तुलना में इस साल चीनी का उत्पादन सबसे कम हुआ है। दुनिया के दूसरे बड़े चीनी उत्पादक देश में इस बार चीनी का उत्पादन 8 से 10 प्रतिशत कम हुआ है। दाल का उत्पादन पिछले साल की तुलना में 15 हजार टन बढ़कर 1 करोड़ 70 लाख 33 हजार टन हुआ है। फिर भी जरूरत 2 करोड़ 70 लाख टन की है। इसलिए बड़े पैमाने पर आयात की आवश्यकता रहती है।
कुछ अदूरदर्शी नेता गांवों में खेतीबाड़ी के बजाय उद्योग तथा नए काम धंधे की वकालत भी करते रहते हैं। वे भूल जाते हैं कि संपन्न अमेरिका और यूरोपीय देशों ने भी अपने कृषि उत्पादन को कम नहीं किया। कृषि का आधुनिकीकरण किया, लेकिन उत्पादन कम नहीं होने दिया। कांग्रेस या भाजपा गठबंधन की सरकारें सारे दावों के बावजूद अर्थव्यवस्था को सही दिशा में लाकर किसानों को उत्पादन का उचित लाभकारी मूल्य नहीं दिलवा पा रही हैं। इसी कारण 60 से 70 प्रतिशत कृषि पर निर्भर ग्रामीण आबादी को न तो मूलभूत सुविधाएं मिल पा रही हैं और न ही कृषि उत्पादों का उचित मूल्य मिल रहा है। कच्चे तेल के आयात की मजबूरी समझ में आती है। लेकिन दाल और चीनी का इतना उत्पादन भारत में संभव है कि किसानों के साथ उपभोक्ताओं को भी राहत मिल सके। कुछ महीने पहले ही कुछ इलाकों में स्वयं किसानों ने बिकवाली न होने से गन्ना जलाया।
कुछ राज्यों में निजी कारखाना प्रबंधकों ने गन्ना ले लिया और महीनो-वर्षों तक किसानों को भुगतान नहीं किया। पंजाब-हरियाणा में गेहूं की भंडारण व्यवस्था नहीं होने से सड़कों पर अनाज पड़ा और सड़ रहा है। मध्य प्रदेश के प्याज उत्पादकों को 30 पैसे प्रति किलो की दर से प्याज बेचना पड़ रहा है और दिल्ली-मुंबई का उपभोक्ता बीस रुपये किलो खरीद रहा है। समस्या उत्पादन और वितरण व्यवस्था में समन्वय, दूरगामी नीति की कमी तथा दलालों-कालाबाजारियों पर नियंत्रण न होने की है। सबका विकास इस हालत में कैसे होगा?