चर्चाः स्वामी की ‘भस्म’ शक्ति पार्टी पर भारी | आलोक मेहता
वित्त मंत्री अरुण जेटली ने बुधवार को सरकार के आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रह्मण्यम का बचाव करते हुए कह दिया कि ‘सुब्रह्मण्यम के विरुद्ध स्वामी का बयान उनकी व्यक्तिगत राय है। यह पार्टी की राय नहीं है।’ लेकिन स्वामी तो घोषित रूप से भाजपा और सरकार के सबसे प्रभावशाली नेता के रूप में ही अभियान चलाते हैं। पार्टी में रहते हुए मोदी सरकार ने स्वामी को तो दरबार के रत्न की तरह बाकायदा राज्यसभा में नामजद करवाया है। स्वामी अर्थशास्त्र के प्राध्यापक 45 साल पहले थे। अटल बिहारी वाजपेयी की कृपा से उन्हें तत्कालीन जनसंघ से जोड़ा गया था, लेकिन 1977 में मोरारजी देसाई के नेतृत्व वाली जनता पार्टी सरकार में प्रधानमंत्री और उनके पुत्र कांति देसाई की आंखों के तारे बनकर उन्होंने पार्टी के कई नेताओं को भिड़ा दिया एवं सरकार भी अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सकी। स्वामी कभी चीन के साथ नए संबंधों की दुहाई देते थे, तो कभी अमेरिका का साथ लेकर दुनिया को ‘कम्युनिस्ट मुक्त’ करने के अभियान में लग जाते हैं। ‘कांग्रेस’ और ‘गांधी-नेहरू’ परिवार मुक्त भारत के मिशन पर लगे हुए सुब्रह्मण्यम स्वामी को अपनी भाजपा सरकार के वित्त मंत्री अरुण जेटली से नाराजगी, नफरत और दुश्मनी तक है। वह स्वयं श्रेष्ठ वित्त मंत्री साबित होकर दिखाना चाहते हैं। ऐसा नहीं है कि प्रधानमंत्री और भाजपा अध्यक्ष यह बात नहीं जानते। लेकिन वे स्वामी पर लगाम नहीं कस सकते हैं। स्वामी अटल-आडवाणी की तरह कभी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक नहीं रहे हैं। लेकिन कट्टर हिंदुवादी विचारों के समर्थक होने का दावा करने से संघ ने उन्हें समानांतर शक्ति का वरदान दिया हुआ है। राष्ट्र हित के नाम पर श्रीलंका-चीन के मामलों में स्वामी ने राजीव गांधी से भी थोड़ा रिश्ता जोड़ लिया था। फिर राजीव गांधी ही नहीं उनके पूरे परिवार के विरुद्ध सारी दुनिया का जहर संपूर्ण राजनीति में उड़ेल दिया। कभी जयललिता के विश्वस्त सलाहकार बने, तो कुछ बरस बाद दुर्वासा रूप धरकर जयललिता को जेल भेजने में सफल रहे। सवाल यह है कि क्या देश के शीर्षस्थ नेता एक स्वामी के लिए ‘लक्ष्मण रेखा’ तय कर नहीं बैठा सकते हैं?