चर्चाः वायदों और दावों का क्या | आलोक मेहता
इसमें कोई शक नहीं कि भाजपा गठबंधन सरकार ने जनहितकारी कुछ पुरानी योजनाओं का रूप रंग बदला और कुछ नई योजनाओं का क्रियान्वयन प्रारंभ किया। दुनिया की सबसे बड़ी ‘जन-धन योजना’ के खातों को लेकर सरकार ने अपनी पीठ थपथपाई। पचास करोड़ लोग यदि नए खाते खोल दें, तब सरकारी खजाने में जमा रकम बढ़ गई, लेकिन खाताधारकों को तत्काल कितना लाभ हो सका? स्वच्छता अभियान के प्रचार पर करोड़ों रुपये खर्च हुए, 10 शहरों की श्रेष्ठता के नाम पर सम्मान की घोषणा हुई, लेकिन यह सफलता कागजी अधिक लगती है। सबसे बड़ा प्रमाण नई दिल्ली के कनॉट प्लेस सहित विभिन्न बस्तियों में गंदगी के अंबार को देखा जा सकता है। इसी तरह पंजाब, महाराष्ट्र, राजस्थान, आंध्र जैसे राज्यों में कर्ज और सूखे से परेशान किसानों द्वारा आत्महत्या की घटनाओं में निरंतर बढ़ोतरी हुई। मतलब यह है कि केंद्र सरकार के प्रयासों के बावजूद राज्य सरकारों की विफलताओं के कारण ग्रामीण क्षेत्रों की हालत खराब है। डिजिटल और स्किल इंडिया के बड़े कार्यक्रमों के बावजूद बेरोजगार युवाओं की संख्या में कई गुना वृद्धि हो गई। शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में केंद्र ने बजट में कटौती की और ठीकरा राज्य सरकारों के माथे पर फोड़ दिया। राज्य सरकारों की आर्थिक हालत पहले ही खस्ता है। केजरीवाल सरकार तो दिल्ली में है, जहां सरकारी स्कूलों की हालत बिहार के स्कूलों से भी बदतर है। अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान के अहाते में मरीज पड़े मिलते हैं। सांप्रदायिक तनाव और आतंकवादी घटनाओं की संख्या में कमी नहीं आई। रही-सही कसर ‘राष्ट्रद्रोह’ के मामले दर्ज होने से नया सामाजिक-राजनीतिक तनाव पैदा होने ने पूरी कर दी। फिर ‘सबका विकास’ के नारे और वायदे का क्या हुआ?