छत्तीसगढ़: क्यों उठ रही है पृथक बस्तर राज्य की मांग?
छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित क्षेत्र बस्तर में जहां लगातार नए सीआरपीएफ कैंप खोले जाने के खिलाफ लोगों में आक्रोश बरकरार है, वहीं 'सिलगेर गोलीकांड' की न्यायिक जांच की मांग भी लगभग बीते दो महीनों से जारी है। इस बीच अब अलग बस्तर राज्य की मांग ने भूपेश सरकार की मुसीबतें और बढ़ा दी है।
भले ही राज्य सरकार इसे 'दो-चार लोगों की मांग' बताकर ज्यादा तवज्जो नहीं देना चाह रही हो लेकिन अंदर ही अंदर आदिवासियों में सरकार के प्रति बढ़ते असंतोष को वह बखूबी समझ रही है। जबकि विपक्षी पार्टी भाजपा इसे नक्सलियों के बढ़ते प्रभाव से जोड़ कर राज्य सरकार पर निशाना साध रही है। वहीं कई जानकार इस मांग को सरकारी प्रोपेगैंडा भी करार दे रहे हैं। उनका तर्क है कि सरकार आदिवासियों की मुख्य मांगों से ध्यान भटकाने के लिए ऐसे हथकंडों का इस्तेमाल रही है। लेकिन पृथक बस्तर की मांग करने वाले लोग क्षेत्र में व्याप्त नक्सल समस्याओं से लेकर आदिवासियों की बदहाल स्थिति से निजात पाने की कसमसाहट के साथ अपनी दलीलें रख रहे हैं।
यह पहली बार नहीं है जब पृथक बस्तर की मांग जोर पकड़ रही है। बल्कि 1948 में बस्तर रियासत के भारत में विलय के बाद से कई मर्तबा इस तरह की आवाजें उठती रही हैं। दरअसल, कई आदिवासी नेताओं का मानना है कि पृथक राज्य बनने के बाद ही सही मायनों में आदिवासियों का विकास हो सकेगा और उनकी समस्याओं का समाधान हो पाएगा। इस वन आच्छादित क्षेत्र में आदिवासियों के लिए कैसी नीति होनी चाहिए, उनके लिए विकास का मॉडल कैसा हो इन तमाम पहलुओं पर समुचित तरीके से विचार अलग राज्य निर्माण के बाद ही संभव है।
इस बार पृथक बस्तर की मांग को सिलगेर की घटना ने हवा दी है। सुकमा जिले के सिलगेर में जब सीआरपीएफ कैंप हटाने के लिए आंदोलन शुरू हुआ और 'गोलीकांड' के बाद ग्रामीणों का आक्रोश बढ़ा, तब उसके बाद से आंदोलनकारियों के हाथों में अलग बस्तर की मांग वाले पोस्टर-बैनर देखे गए। एक ग्रामीण ने नाम न प्रकाशित करने की शर्त पर बताया कि इस क्षेत्र में अलग बस्तर की मांग जोर पकड़ रही है। उनके मुताबिक खासतौर पर युवा वर्ग में इस मांग को लेकर भारी समर्थन है। उन्होंने बताया, "सिलगेर में हुई घटना के बाद लोगों में बेहद गुस्सा है। अब युवा चाहते हैं कि बस्तर को अलग राज्य बनाया जाए। इस मांग के पीछे कोई संगठन या नेतृत्व नहीं है बल्कि युवाओं के बीच से ही ऐसी आवाजें आ रही हैं।"
कांकेर जिले के माकड़ी के रहने वाले सर्व आदिवासी समाज के पदाधिकारी योगेश नरेटी भी पृथक बस्तर राज्य के पक्षधर हैं। वे कहते हैं, "अभी तक यहां शिक्षा स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाएं भी नहीं हैं। यहां इतनी खनिज संपदा है लेकिन बस्तरवासियों को इसका कोई लाभ नहीं मिलता। जब हम लोग मांग करते हैं तब नक्सलियों का नाम लेकर हमारे आंदोलनों को दबाया जाता है। कोई भी सरकार इन समस्याओं को खत्म करने की पहल नहीं कर रही है। यहां तक कि सरकार बातचीत के लिए भी तैयार नहीं है।" वे आगे कहते हैं कि पेसा कानून के नियम तो अब तक नहीं बन पाए हैं ऐसे में उनके पास क्या चारा है? पृथक राज्य होगा तब बस्तर की समस्याएं सुलझेंगी।
कांकेर जिले के ही पलेवा में रहने वाले गोंडवाना गणतंत्र पार्टी के नेता घनश्याम झुर्री का मानना है कि समस्याएं उनकी है तो समाधान भी उन्हें ही करना पड़ेगा। वे कहते हैं, "आजादी के 70 साल के बाद भी बस्तर की हालत बद से बदतर है। इतने सालों से बीजेपी और कांग्रेस की सत्ता रही है लेकिन यहाँ के मूलनिवासी समाज के साथ कभी न्याय नहीं हुआ है। इसे देखते हुए ये मांग की जा रही है।" झुर्री नक्सलवाद की समस्या का समाधान भी नए राज्य के गठन में देखते हैं।
हालांकि छत्तीसगढ़ के पूर्व गृहमंत्री रामसेवक पैकरा इन मांगों के पीछे नक्सली साजिश की बात करते हैं। उनका कहना है कि बस्तर के गांव-गांव में नक्सलवाद है और अलग राज्य की मांग उसी साजिश का हिस्सा है। नक्सली ही इस तरह की मांग कर रहे हैं। राज्य सरकार पर निशाना साधते हुए वे कहते हैं कि प्रदेश सरकार इस बढ़ते नक्सलवाद को रोक पाने में नाकाम साबित हो रही है।
भले ही बस्तर के आदिवासियों का एक वर्ग पृथक राज्य बनाने के सपने मन से देख रहा है मगर बस्तर को अलग राज्य बनाने की राह इतनी आसान नहीं है। बस्तर संभाग का क्षेत्रफल केरल से कुछ अधिक अवश्य है, मगर जनसंख्या के मामले में केरल के दसवें हिस्से के बराबर भी नहीं है। इसके अलावा छत्तीसगढ़ पहले ही एक छोटे राज्य के रूप में स्थापित हुआ है। ऐसे में इसे राज्य बनाने के आसार कम ही दिखते हैं। सामाजिक कार्यकर्ता और मजदूर नेता नंद कश्यप का कहना है कि अलग राज्य बनाने का मुद्दा सिर्फ असल समस्याओं से ध्यान हटाने के लिए छेड़ा गया है। इस क्षेत्र को स्वायत्तता दी जानी चाहिए। पेसा कानून को सही ढंग से लागू करना चाहिए। ताकि आदिवासियों का अधिकार सुरक्षित रहे। उन्होंने कहा, "यहां के ग्रामीण चाहते हैं कि कैंप लगाने, खनन जैसे कार्य शुरू करने से पहले उनकी सहमति ली जाए। अगर पेसा कानून सही तरीके से यहां लागू होता है और उन्हें स्वायत्तता मिलती है तब काफी हद तक उनकी समस्याएं कम हो जाएंगी, अलग राज्य की जरूरत नहीं है। "
आदिवासियों की यह आवाज कहां तक पहुंचती है इसका पता आने वाले समय में चलेगा लेकिन उनके बीच से फूट रहे असंतोष के तीखे स्वर सरकार की नाकामी को जरूर उजागर कर रहा है। जनता कांग्रेस छत्तीसगढ़ (जे) के प्रदेशाध्यक्ष अमित जोगी कहते हैं, "पृथक बस्तर की मांग उठना सरकार की विफलता को दर्शाता है। ढाई सालों में नंदराज पर्वत डिपॉजिट-13 और कई खदानों को बिना जन सुनवाई के अडानी और नेको को दे देना, नगरनार इस्पात संयंत्र का विनिवेश, सिलगेर में पुलिस की गोलियों से आदिवासियों की हत्या, लोन वर्राटू अभियान के अंतर्गत निर्दोषों को जबरिया नक्सली करार देना, सड़क, स्वास्थ्य, शिक्षा का अभाव जैसे कारणों ने आदिवासियों में बेहद असंतोष पैदा किया है।" उन्होंने जोर देकर कहा कि सरकार को बस्तरियों का विश्वास जीतने के लिए ठोस कदम उठाने होंगे।
बहरहाल कई आदिवासी नेता पृथक राज्य की मांग को लेकर बड़े आंदोलन की तैयारी की बात कर रहे हैं। लेकिन फिलहाल सरकार का रवैया इसे भाव नहीं देने का है। छत्तीसगढ़ सरकार के प्रवक्ता और वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्री मोहम्मद अकबर कहते हैं, "चार लोगों की मांग करने से ऐसा थोड़ी न हो जाएगा। छत्तीसगढ़ की सरकार बहुत अच्छे से काम कर रही है। कहीं-कहीं असंतोष की ऐसी बातें आ जाती हैं।"