घाटा खजाने या लोकप्रियता का
रिक्शे–ऑटो चालकों से लेकर अमेरिका में विमान या साइबर कंपनियों से जुड़े लोग भी धड़ाधड़ पैसा भेज रहे थे। तत्कालीन राज्य या केंद्र सरकारों से४ नाराज कुछ बड़ी निजी कंपनियों ने भी प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से आम आदमी पार्टी का झंडा ऊंचा करने के लिए मोटी रकम पहुंचाई। केजरीवाल साहब का दर्द है कि डेढ़ साल सत्ता में रहने के बाद भी उनके पास चुनाव लड़ने-लड़ाने को पैसा नहीं है। दूसरी तरफ पिछले हफ्तों के दौरान वह सार्वजनिक रूप से दावा कर चुके हैं कि पंजाब और गोवा विधानसभा चुनाव होने पर आम आदमी पार्टी को ही भारी बहुमत से विजय मिलने वाली है। अभी उन चुनावों का ऐलान तक चुनाव अयोग ने नहीं किया है और न ही पार्टी ने सारे उम्मीदवार घोषित किए हैं। राजनीतिक गणित या ज्योतिषी भविष्याणी क्या इतनी पक्की हो सकती है? बहरहाल, उनके विरोधाभासी बयानों से दो सवाल उठते हैं। पहला यह कि सत्ता में आने के बाद उन्होंने ऐसी क्या गलती की है कि लाखों चाहने वाले समर्थकों ने उन्हें और पार्टी को भविष्य के लिए चंदा देना बंद कर दिया? श्रीमान मुख्यमंत्री अपनी सफलताओं और उपलब्धियों का दिल्ली से अधिक देश-दुनिया में प्रचार करते हैं। तो क्या लोग इन दावों पर भरोसा नहीं कर पा रहे हैं और उनकी लोकप्रियता बड़ी घाटे में है। दूसरा सवाल यह कि क्या पार्टी के खाली खजाने की बात सुनाकर वह पंजाब-गोवा में ऐसे लोगों को उम्मीदवार बना सकते हैं, जो करोड़ों का खर्च उठा सके? आखिरकार चुनावी मैदान से जुड़ा कार्यकर्ता ही नहीं साधारण मतदाता तक देखता है कि विधानसभा चुनाव में भी करोड़ों रुपया बहता है। घाटा तो केवल मतदाता सहता है।