परीक्षा की अनिवार्यता अधर में
यह प्रस्ताव अब केंद्रीय मंत्रिमंडल के पास जाएगा। दसवीं की सीबीएसई बोर्ड परीक्षा की अनिवार्यता पर केंद्र सरकार अभी विचार करती रहेगी। दुनिया के लोकतांत्रिक देशों में संभवतः भारत अनूठा देश है, जहां आजादी के 70 वर्षों में शिक्षा नीति, परीक्षा, पाठ्यक्रमों को लेकर एक सुविचारित नीति नहीं बनी और लगातार परिवर्तन होते रहे। इससे संपूर्ण शैक्षणिक व्यवस्था प्रभावित होती है। संघीय ढांचा तो अमेरिका, जर्मनी जैसे देशों में भी है, लेकिन विभिन्न प्रदेशों की स्कूली शिक्षा में कोई अंतर नहीं होता। हमारे देश में शिक्षा संबंधी अनगिनत समितियों और आयोगों का गठन हुआ। उनकी लंबी-चौड़ी रिपोर्ट आती रही। आधी अधूरी लागू हुई या अलमारियों में धूल खाती रहीं। केंद्र और राज्य सरकारें सत्तर के दशक से दसवीं, बारहवीं परीक्षा की व्यवस्था बदलती रहीं। कुछ राज्यों में तो ग्यारहवीं के बच्चों को पता नहीं चलता था कि बारहवीं बोर्ड होगी या पहले ही स्कूल के बाद कॉलेज में भर्ती होना होगा। कहीं ग्यारहवीं के बाद सेकेंडरी बोर्ड परीक्षा हुई और छात्रों को कॉलेज में जाना पड़ा। कहीं इंटर बोर्ड कहकर बारहवीं के बाद कॉलेज हुआ। बाद में सब जगह 12वीं के बाद ही कॉलेज होने लगा। दूसरी तरफ चौथी-पांचवीं या आठवीं की परीक्षा के बच्चों पर मानसिक दबाव-तनाव इत्यादि के तर्क के साथ परीक्षाएं बंद करने के फैसले राज्यों या स्कूलों ने कर दिए। परीक्षा न होने पर कमजोर बच्चों को अगली कक्षा में जाने से नई समस्या हुई। वे अधिक कमजोर होते चले गए। मूल कारण यह भी है कि स्कूली शिक्षा में भी भिन्न पाठ्यक्रमों में बदलाव और शिक्षकों की कमी अथवा स्तर खराब होने से शिक्षा की जड़ ही खोखली हो सकती है। जहां भारत में पढ़े लाखों शिक्षित दुनिया में श्रेष्ठतम डॉक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक, अर्थशास्त्री, बैंकर्स साबित हो रहे हैं, वहां भारतीय शिक्षा की छवि बिगड़ी हुई है। संघीय लोकतांत्रिक व्यवस्था के नाम पर नई पीढ़ी के भविष्य के साथ खिलवाड़ बंद कर एक दूरगामी राष्ट्रीय शिक्षा नीति शीघ्र बननी चाहिए।