नहीं मिली ‘स्वर्ग’ में जगह: घाटी में प्रवासियों पर आतंकी हमले के बाद एक बार फिर लौटा मजदूरों के पलायन का दौर
चार महीने पहले बिहार के अररिया जिले के रहने वाले 18 साल के राजा ऋषि अपने पड़ोसी रविंद्र ऋषि (35 साल) के साथ रोजी-रोटी की तलाश में जम्मू-कश्मीर गए थे। कुछ दिनों पहले ही गांव में पक्का मकान बनवाने के लिए राजा ने सरिया, बालू और ईंटें मंगवाई थीं। लेकिन तब किसे पता था कि अब वे कभी नहीं लौटेंगे। घर में उनकी बूढ़ी दादी हैं, पिता मानसिक रूप से बीमार हैं। धरती का स्वर्ग कहे जाने वाले कश्मीर में 17 अक्टूबर को आतंकवादियों ने राजा और रविंद्र की गोली मार कर हत्या कर दी। आउटलुक से बातचीत में राजा के रिश्तेदार रामचंद्र ऋषि बताते हैं, “परिवार बहुत गरीब है और कमाने वाला कोई नहीं है। इसलिए इस उम्र में वह दो पैसे कमाने बाहर गया था।” रविंद्र के परिवार में गर्भवती पत्नी और तीन छोटे बच्चे हैं। रामचंद्र कहते हैं, “इनके पास भी कोई आसरा नहीं है।”
घाटी में मारे गए प्रवासी मजदूर राजा ऋषि
राजा और रविंद्र एक ही फैक्ट्री में काम करते थे। घटना के बाद बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने मृतकों के परिवारों को दो-दो लाख रुपये के मुआवजे का ऐलान किया है। इस हमले के बाद बड़े पैमाने पर घाटी से पलायन शुरू हो गया है। रंजन ऋषि कहते हैं, “अगल-बगल के कई गांव के लोग, जो पंजाब और कश्मीर में रहते थे, वापस लौट रहे हैं। सबमें एक डर है।” श्रीनगर में आतंकवादियों ने बांका जिले के गोलगप्पे बेचने वाले अरविंद शाह (30 साल) की भी हत्या कर दी। अरविंद घाटी के ईदगाह इलाके के एक पार्क के बाहर गोलगप्पे बेचते थे।
रक्षा विशेषज्ञ घाटी में लगातार बढ़ती आतंकी वारदात के पीछे तालिबान कनेक्शन मान रहे हैं। मेजर जनरल (रिटायर्ड) पी.के. सहगल आउटलुक से कहते हैं, “पूरे अफगानिस्तान पर अब तालिबानियों का कब्जा हो चुका है। पाकिस्तान घाटी को अस्थिर करने की कोशिश में लगा हुआ है। गैर-कश्मीरियों को इसलिए निशाना बनाया जा रहा है क्योंकि इससे पूरे देश पर प्रभाव पड़ता है।”
कयास है कि पाकिस्तान तालिबान के उदय का इस्तेमाल अलगाववादी एजेंडे को हवा देने और कश्मीर में इस्लामी भावनाओं को भड़काने के लिए कर सकता है। सहगल कहते हैं, “पाकिस्तान वर्षों से आतंकी पाल रहा है। वह इस आस में है कि ये लोग उसे कश्मीर पर कब्जा करने में मदद करेंगे।”
इन सबके बीच एक बार फिर बिहार में पलायन पर सवाल उठना शुरू हो गए हैं। कोविड-19 महामारी के दौरान भी लॉकडाउन के बीच बड़ी संख्या में दूसरे राज्यों से मजदूरों का गांवों की ओर पलायन हुआ था। अब ये मजदूर कश्मीर घाटी और पंजाब से बड़ी संख्या में बिहार-यूपी लौट रहे हैं। सहगल बताते हैं, “आतंकी गैर-कश्मीरियों में खौफ पैदा करना चाहते हैं। इससे यहां की अर्थव्यवस्था को नुकसान होगा। घाटी में 70 फीसदी लोग दूसरे राज्यों के ही हैं।”
बिहार में अब भी रोजगार, शिक्षा बड़ा संकट है। हर साल लाखों विद्यार्थियों को पढ़ाई और मजदूरों को जीवनयापन के लिए दूसरे राज्यों में जाना पड़ता है। राज्य में बड़े पैमाने पर पलायन का यह दौर 1990 के दशक में लालू राज के दौरान शुरू हुआ था। तब से अमूमन हर कुछ साल बाद किसी-न-किसी राज्य में बिहार के लोगों के साथ हिंसा की घटनाएं सामने आती रही हैं। अधिकतर मामले महाराष्ट्र, गुजरात, केरल जैसे राज्यों में होते हैं। 2008 में मुंबई पुलिस ने पटना के छात्र राहुल को बेलबाजार इलाके के पास एक बस के अंदर मुठभेड़ में मार दिया था। सीएम नीतीश ने इस कार्रवाई को ‘मुंबई पुलिस की अत्यधिक प्रतिक्रिया’ करार दिया था। राज ठाकरे की पार्टी महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) के कार्यकर्ताओं ने भी कई बार बिहारी मजदूरों-छात्रों पर हमले किए हैं। यहां तक कि पूर्व शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे ने बिहार के लोगों के बारे में, ‘एक बिहारी सौ बीमारी’ कहा था।
टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेस (टिस), पटना के चेयरपर्सन प्रोफेसर पुष्पेंद्र कुमार सिंह आउटलुक से कहते हैं, “राज्य और केंद्र सरकार का इस ओर ध्यान नहीं है। बिहार सिर्फ मजदूरों की सप्लाई करने वाला राज्य बनकर रह गया है। सरकार के पास ऐसा कोई आंकड़ा नहीं है, जिससे पता चले कि हर साल किस राज्य से कितने प्रवासियों का पलायन हो रहा है।” आतंकियों द्वारा गैर-कश्मीरियों को निशाना बनाए जाने पर प्रो. पुष्पेंद्र कहते हैं, “पहले भी आम नागरिकों को टारगेट किया गया है। खलिस्तान आंदोलन ऐसा ही उदाहरण है, जब बिहारियों को मारा गया था।”
घाटी में बिहार के कामगारों की हत्या पर राष्ट्रीय जनता दल (राजद) नेता तेजस्वी यादव ने नीतीश सरकार पर वार करते हुए ट्वीट किया, “अन्याय के साथ विनाश ही नीतीश-भाजपा सरकार का मूल मंत्र है। डबल इंजन सरकार की डबल मार। बिहार में नौकरी-रोजगार देंगे नहीं और बाहर जाओगे तो मार दिए जाओगे।” राजद प्रवक्ता मृत्युंजय तिवारी कहते हैं, “अब नीतीश सरकार लालू राज को नहीं कोस सकती। नीतीश 16 साल से सरकार में हैं लेकिन रोजगार का कोई अवसर नहीं पैदा कर पाए।”
इस घटना के बाद राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह को चेतावनी देते हुए अतिशयोक्ति भरी टिप्पणी की। उन्होंने ट्वीट किया, “कश्मीर में यदि हालात में बदलाव नहीं हो पा रहे हैं, तो कश्मीर सुधारने की जिम्मेदारी हम बिहारियों पर छोड़ दीजिए। 15 दिन में सुधार न दिया तो कहिएगा।” हिंसा की नई घटनाओं के मद्देनजर अमित शाह ने घाटी का दौरा भी किया है। शाह की तीन दिवसीय जम्मू-कश्मीर यात्रा के बीच कांग्रेस नेता गुलाम नबी आजाद ने कहा, “कहा गया था, अनुच्छेद 370 हटने के बाद जम्मू-कश्मीर में विकास, अस्पताल और बेरोजगारी पर ध्यान दिया जाएगा, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हो रहा है।”
हाल की आतंकी घटनाओं के बाद केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने घाटी का दौरा किया
टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज की एक रिपोर्ट के मुताबिक साल 1951-61 तक बिहार की करीब चार फीसदी आबादी ने पलायन किया था। वहीं, एक आरटीआइ के मुताबिक पिछले पांच वर्षों के दौरान दिल्ली, देहरादून या पटना रीजन में एक भी अंतर्राज्यीय प्रवासी श्रमिक पंजीकृत नहीं हुआ है। अंतर-राज्य प्रवासी कामगार (आइएसएमडब्ल्यू) अधिनियम, 1979 के तहत 2019-20 में 34,000 से भी कम पंजीकृत श्रमिक थे।
प्रो. पुष्पेंद्र ने बताया, “यह कानून नाकाम साबित हुआ है। सरकार को इसमें बदलाव करने की जरूरत है। यहां पंजीकृत ठेकेदारों के जरिए जाने वाले कामगारों की ही गिनती होती है, जिसमें मजदूर न के बराबर आते हैं।” 2020 में लॉकडाउन के दौरान घर लौटे प्रवासियों के बारे में जानकारी देते हुए श्रम मंत्रालय ने बताया था कि 1.23 करोड़ प्रवासी श्रमिकों में से 50 प्रतिशत (61,34,943) तीन राज्यों– उत्तर प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल से थे। राजस्थान और ओडिशा को मिलाकर सिर्फ पांच राज्यों से 67 प्रतिशत प्रवासी श्रमिकों की वापसी दर्ज की गई थी। गुजरात एकमात्र ऐसा राज्य था जहां किसी भी प्रवासी श्रमिक की वापसी नहीं हुई।
2020 में संसद को दिए एक जवाब में केंद्रीय मंत्री नित्यानंद राय ने बताया था कि 2011 की जनगणना के आंकड़ों के मुताबिक बिहार से करीब तीन करोड़ लोगों ने (2,72,44,869) ने पलायन किया। जबकि श्रम मंत्री संतोष कुमार गंगवार ने इसी साल एक सवाल के जवाब में कहा था, “लोग एक राज्य से दूसरे राज्यों में काम की तलाश और अन्य चीजों के लिए लगातार आते-जाते रहते हैं। इसलिए इनका रिकॉर्ड रखना संभव नहीं है।” टिस के प्रो. शशांक चतुर्वेदी कहते हैं, “पहले पलायन अस्थायी था, अब शिक्षा के लिए प्रवास स्थायी बन गया है। बिहार में अवसर की कमी से यह समस्या आ रही है।”