चर्चाः समानान्तर राजनीतिक सत्ता की कमाई
मीडिया में उनका चेहरा चमका। राजनीतिक कार्यकर्ता आश्चर्यचकित हो गए। भाजपा के सत्ता में आने के बाद प्रशांत किशोर को आशा के अनुरूप ‘सत्ता का फल’ नहीं मिला। कुछ महीने बाद पी.के. (प्रशांत किशोर) ने पाला बदला और बिहार में नीतीश-लालू यादव की पालकी को विजय-यात्रा में आगे बढ़ाने का दायित्व संभाल लिया। पटना में सात सौ सेवकों की टीम लेकर कुछ नारे गढ़े, कुछ भाषण लिखे, निर्वाचन क्षेत्रों का आकलन नीतीशजी को सौंपे। जनता दल (यू), राष्ट्रीय जनता दल एवं कांग्रेस गठबंधन के लिए बिहार विधानसभा का चुनाव अस्तित्व से जुड़ा हुआ था। नीतीश के दस वर्षों के कार्यकाल में हुए कल्याणकारी काम, लालू यादव और कांग्रेस नेताओं के जातिवादी समीकरणों में पिछड़ा, ऊंची जाति, अल्पसंख्यक और दलित मतदाताओं के बल पर नीतीश-लालू को विजय मिली। लेकिन विजय का सेहरा ‘पी.के.’ ने अपने सिर पर पहना। बिहार में उन्हें कैबिनेट मंत्री का दर्जा देकर बिहार विकास परिषद का राजनीतिक फल भी मिल गया। लेकिन दिल्ली में अरविन्द केजरीवाल की टक्कर में राष्ट्रीय स्तर पर अपने ‘राजनीतिक चमत्कार’ की दावेदारी के लिए अब कांग्रेस पार्टी और राहुल गांधी को प्रभावित किया। कांग्रेस के इतिहास में यह पहला अवसर है, जबकि पांच रुपये के शुल्क वाली प्राथमिक सदस्यता लिए बिना प्रशांत किशोर ने उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी के पचास वर्षों से काम कर रहे प्रादेशिक नेताओं की क्लास ली और जिला स्तरों से भी रिपोर्ट मांगी है। संजय गांधी को समानान्तर सत्ता कहा जाता था, लेकिन वह पहले बाकायदा युवक कांग्रेस के सदस्य और फिर चुनकर संसद सदस्य बने थे। सोनिया-राहुल गांधी भी पार्टी के चुने हुए नेता के रूप में काम करते रहे। लेकिन पी. के. ने राजनीतिक ‘हींग-फिटकरी’ या सिंदूरी तिलक लगाए बिना कांग्रेस की बागडोर संभाल ली। कांग्रेसियों के लिए इससे ‘बुरे दिन’ क्या कभी रहे होंगे?