किसान आंदोलन: कामयाब आंदोलन की नजीर; कानून तो वापस मगर मुद्दे बरकरार
प्रधानमंत्री का गुरुपरब, 19 नवंबर को राष्ट्र के नाम संबोधन हैरान करने वाला था, उनके लिए भी जो तीनों केंद्रीय कृषि कानूनों को लंबे समय से लंबित महत्वपूर्ण आर्थिक सुधार बताते रहे हैं और उनके लिए भी जो इन कानूनों के खिलाफ साल भर से दिल्ली की सीमाओं पर डटे हैं। इसीलिए तीनों कानूनों की वापसी के ऐलान पर बहुतों के लिए सहसा यकीन करना मुश्किल था। आखिर कथित तौर पर आर्थिक सुधारों के अगले चरण और अर्थव्यवस्था में जान फूंकने के लिए लाए गए इन कानूनों के लिए सरकार ने बड़े साहस और दृढ़ता का परिचय जो दिया था।
कोरोना महामारी और आर्थिक मंदी के बुरे दौर में जून 2020 में पहले ये कानून अध्यादेश के रूप में लाए गए और फिर संसद, खासकर राज्यसभा में विपक्ष के वोट विभाजन की मांग को अनसुना करके हंगामे में पारित करवाए गए। यहां तक कि एनडीए में सबसे पुराने सहयोगी अकाली दल को भी नाता तोड़कर जाने दिया गया। इसलिए दोनों तरफ से अविश्वास भरी प्रतिक्रियाएं आईं। इन कानूनों और सत्तारूढ़ पार्टी के समर्थक कई नामी-गिरामी और कंगना रनौत जैसी शख्सियतों ने सरकार के यू-टर्न पर हैरानी जताने वाले ट्वीट वगैरह किए। फिर सरकार की ओर से कानून वापसी और प्रधानमंत्री के क्षमा मांगने को भले देशहित और सकारात्मक एहसास जैसा संकेत दिया गया हो, लेकिन सियासी गलियारों में इसे पांच राज्यों, खासकर उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और पंजाब के आसन्न चुनावों से जोड़कर देखा गया। लिहाजा, प्रधानमंत्री की अपील के अनुरूप किसान मोर्चे से फौरन नहीं हटे, बल्कि न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी), दूसरे संभावित कानूनों, आंदोलन के दौरान तकरीबन 700 किसानों की मृत्यु, मुकदमे वगैरह संबंधी मांगों के लिए तेवर कुछ कड़े हो गए।
किसान आंदोलन के नेताओं ने शायद इसे ‘वोट की चोट’ की अपनी रणनीति की कामयाबी मानी, इसीलिए लखनऊ में पंचायत और संसद सत्र के दौरान जंतर-मंतर पर रोजाना जत्थों के पहुंचने के कार्यक्रम जारी रखे गए। 22 नवंबर को लखनऊ की किसान पंचायत में किसान नेता राकेश टिकैत ने कहा, ‘‘प्रधानमंत्री ज्यादा ही मीठा बोले, जिससे शंका होती है। माफी मांगने से किसान को फसल का सही दाम नहीं मिलेगा, वह तो एमएसपी की कानूनी गारंटी से ही मिलेगा।’’ आगे हालात चाहे जैसी करवट लें, मगर यह तय है कि साल भर से ज्यादा चले किसान आंदोलन और कानून वापसी तथा माफी दोनों ही इतिहास में दर्ज हो गए।
इतने लंबे और मोटे तौर पर अनुशासित तथा अहिंसक आंदोलन की मिसाल कम ही है। इसकी शुरुआत 5 जून 2020 को अध्यादेश जारी होने के साथ ही पंजाब में विरोध प्रदर्शनों के साथ हुई, जिसके लिए भारतीय किसान यूनियन (राजेवाल) के अध्यक्ष तथा सबसे बुजुर्ग नेता बलबीर सिंह राजेवाल की अगुआई में राज्य की 32 किसान जत्थेबंदियां एक मंच पर आईं। फिर, पिछले साल सितंबर में संसद के वर्षाकालीन सत्र में जब इन्हें कानून का रूप दे दिया गया तो पंजाब की रेललाइनों पर धरने शुरू हो गए, जिसमें किसान जत्थेबंदियों के साथ पंजाबी लोकगायक और फिल्मी सितारे भी जुटने लगे। यह संकेत था कि पंजाब के आम लोगों में कैसा जज्बा बनता गया। फिर नवंबर में देश भर की सैकड़ों किसान यूनियनों ने दिल्ली में बैठक करके संयुक्त किसान मोर्चे की नींव रखी, जिसमें अब देश के हर कोने के 500 से अधिक किसान यूनियनों की शिरकत बताई जाती है। संयुक्त किसान मोर्चे ने पिछले साल 26 नवंबर को संविधान दिवस के दिन दिल्ली कूच का फैसला किया। पंजाब और हरियाणा से किसानों के जत्थों के सामने कई बाधाएं खड़ी की गईं, लेकिन किसान दिल्ली की सीमा पर आ बैठे।
सरकार से 11 दौर की बातचीत हुई, लेकिन न किसान नेता अपनी मूल मांगों से हटे, न सरकार हटी। इस दौरान कई ऊंच-नीच भी देखने को मिला। सरकार से आखिरी बेनतीजा बातचीत 22 जनवरी को खत्म हुई और 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस को ट्रैक्टर परेड में कुछ किसान अपने रूट से भटके, लाल किला पहुंचे और कुछेक प्रदर्शनकारी लाल किले की प्राचीर पर एक सिख ध्वज लगा आए। पुलिसवालों से कुछ झड़प भी हुई। इससे आंदोलन के खिलाफ नकारात्मक असर बना और खालिस्तानी तत्वों की करतूत माना गया।
भाजपा और उसके सहयोगियों ने आंदोलन पर लांछन लगाए और धरना स्थलों सिंघू, टिकरी और गाजीपुर बॉर्डर पर आंदोलन के खिलाफ प्रदर्शन हुए। तभी 28 जनवरी को गाजीपुर बॉर्डर पर पुलिस और भाजपा कार्यकर्ताओं की कथित तौर पर हिंसक घेराबंदी और बिजली-पानी काट देने से राकेश टिकैत के आंसू निकल आए, जिसे टीवी पर सीधे प्रसारण से देश भर में देखा गया। उसके बाद तो रातोरात पश्चिम उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान से किसानों के जत्थे चल पड़े। कुछ हद तक सूने पड़े धरना स्थलों पर फिर भीड़ उमड़ आई और आंदोलन विरोधी फिजाएं कमजोर पड़ने लगीं। उसके बाद सरकार की ओर से कोई बातचीत न होने से निराशा छाती रही है। मगर किसान नेताओं ने अपनी एकजुटता और जज्बा बनाए रखा और देश भर में दौरे करते रहे। पश्चिम बंगाल चुनावों में वे वहां भी गए और अब मिशन यूपी का भी ऐलान कर रखा है।
इसी वजह से कुछ लोग दिल्ली की सीमाओं से लेकर पंजाब और हरियाणा के टोल प्लाजा पर पक्के मोर्चों में डटे किसानों के इस आंदोलन को लोकतंत्र की जीत बता रहे हैं। यह भी गौरतलब है कि संयुक्त किसान मोर्चे का हर फैसला लोकतांत्रिक प्रक्रिया से ही किया जाता है। एक नौ मेंबरी कमेटी है, जिसमें सभी बड़े नेता राजेवाल, पंजाब की सबसे बड़ी किसान यूनियन उगराहां के अध्यक्ष जोगिंदर सिंह उगराहां, हरियाणा के बड़े किसान नेता गुरनाम सिंह चढ़ूनी, राकेश टिकैत, योगेंद्र यादव, हनान मोल्ला वगैरह सदस्य हैं। फिर बड़े फैसले सभी संगठनों की आम बैठक में लिया जाता है।
इस प्रक्रिया के चलते भी किसानों की भागीदारी और नेताओं में भरोसा बना रहा है। राजेवाल ने आउटलुक से कहा, ‘‘बीतते समय के साथ एक साल में कई धरना स्थल किसान परिवारों के लिए उनके दूसरे घर की तरह हो गए हैं। आंदोलन में किसान परिवारों की महिलाएं, बच्चे, बुजुर्ग सभी शामिल हैं।’’ राजेवाल के मुताबिक साल भर से पंजाब के सभी 22 जिलों की 30 से अधिक किसान यूनियनों से जुड़े हजारों किसान परिवारों के ट्रैक्टरों के काफिलों की हर हफ्ते दिल्ली के सिंघु और टिकरी बॉर्डर पर आवाजाही जारी है। सैंकड़ों बर्तन गांवों के गुरुद्वारों से आए हैं। पक्के धरना स्थलों पर आंदोलन के पहले दिन से ही किसानों के लंगर जारी हैं, जहां न केवल पुलिसवाले, बल्कि आसपास की फैक्ट्रियों में काम करने वाले प्रवासी मजदूर भी तीन वक्त का खाना खा रहे हैं।
ठंड, बारिश, आंधी, तूफान और गर्मी की तपिश के बीच किसान सड़क किनारे खुले धरना स्थलों पर साल भर से तमाम संकट झेलते हुए डटे रहे हैं। सिंघु, टिकरी और गाजीपुर स्थित मुख्य धरना स्थल के 20 से 25 किलोमीटर के दायरे में फैले बहुत से किसान साल भर से ट्रॉलियों में तिरपाल के आशियाने से नहीं डिगे। इन्हीं ट्रॉलियों में बैठे किसान युवाओं ने आंदोलन का मुखपत्र ट्रॉली टाइम्स निकाला है, वहीं ‘ट्रैक्टर2ट्विटर’ हैंडल, फेसबुक और इंस्टाग्राम पोस्ट ने संयुक्त राष्ट्र तक किसानों की आवाज बुलंद की है। ट्रॉली टाइम्स के संपादक नवकिरण ने आउटलुक को बताया कि प्रिंट और डिजिटल न्यूज के अलावा सिंघु धरना स्थल पर स्थापित ‘ट्रॉली टॉकीज’(मिनी थियेटर) में पंजाब 1984, चार साहिबजादे, शहीद भगत सिंह और पीपली लाइव जैसी आंदोलन प्रेरक फिल्मों के प्रदर्शन से किसानों में जोश बरकरार रखा गया।
धरना स्थल पर डटे किसानों के लिए पंजाबी गायक दिलजीत दोसांझ, गुरु रंधावा, गिप्पी ग्रेवाल, हरभजन मान, बब्बू मान और कंवर ग्रेवाल ने किसान संगठनों के मंच से लेकर सोशल मीडिया तक कई गीत आंदोलन को समर्पित किए। आनंदपुर साहिब के घुड़सवार निहंग जत्थों ने अपने करतबों से किसानों में जोश भरा। सिंघु बॉर्डर पर स्थापित किसान लाइब्रेरी में अखबार, पत्रिकाओं से लेकर सिख गुरुओं के इतिहास और सिख विद्वानों की लिखी पुस्तकें उपलब्ध हैं।
टिकरी बॉर्डर पर पिछले एक साल से डटीं भारतीय किसान यूनियन उगरांहा (एकता) की महिला विंग की जागीर कौर नवंबर 2020 से अपने गांव सिर्फ तीन बार गई हैं। मानसा जिले की जागीर कौर का कहना है कि पिछले एक साल से धरना स्थल ही उनका घर है। यूनियन के महासचिव सुखदेव सिंह कोकरी कलां के मुताबिक, उनकी यूनियन ने करीब 40 लाख रुपये के झंडे, बैनर और स्टीकर बेचे हैं।
सिंघु और टिकरी बॉर्डर पर राशन, कंबल, गर्म कपड़े, चप्पल और दवाएं मुहैया कराने वाले लुधियाना के एक बड़े उद्योगपति ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि उनके कई साथी उद्योगपतियों ने धरना-स्थल पर दर्जनों ट्रक सब्जियां, फल और राशन भिजवाए लेकिन कुछ दिनों बाद इनकम टैक्स विभाग के अधिकारी उनके यहां चक्कर लगाने लगे।
अनुदान जुटाने की प्रक्रिया भी अनुशासित और पारदर्शी रही है। कनाडा, ब्रिटेन, अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया में बसे एनआरआइ के अलावा पंजाब के हर गांव से किसान परिवारों ने वित्तीय मदद की। भारतीय किसान यूनियन उगरांह (एकता) के महासचिव सुखदेव सिंह कोकरी कलां ने आउटलुक को बताया, ‘‘बाकायदा पक्की रसीद के जरिए इकट्ठा होने वाला गांव, ब्लॉक से लेकर जिला स्तर और विदेशों के गुरुद्वारों की कमेटियों के पास पंजाबी एनआरआइ का अनुदान बैंक खातों में जमा हो रहा है।’’
अनुदान का खर्च भी आंदोलन की एक विशेष कमेटी की निगरानी मेंं होता है। जमा और खर्च का हरेक महीने ब्यौरा गांवों की चौपाल और मुख्य चौराहों पर चस्पा कर दिया जाता है। बेशक, इस आंदोलन की पहली जीत कानून रद्द होना है पर एमएसपी की गारंटी का कानून जैसी प्रमुख मांग बाकी है। यकीनन यह आंदोलन अपनी नजीर के लिए याद रखा जाएगा।
कानून वापसी और प्रधानमंत्री के क्षमा मांगने को खासकर उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और पंजाब के आसन्न चुनावों से जोड़कर देखा जा रहा है