कश्मीर से कर्नाटक तक आग
महबूबा मुफ्ती के नेतृत्व वाली सरकार कम से कम विभिन्न संगठनों को अल्पकालिक 'संघर्ष विराम’ के लिए राजी करने के गंभीर प्रयास कर सकती थी। आखिरकार, सीमाओं पर त्यौहारों के अवसर पर एक दिन के लिए 'युद्ध विराम’ के लिए सेनाएं राजी हो जाती हैं। जम्मू-कश्मीर की जनता आतंकवादियों की गतिविधियों और कुछ अतिवादी संगठनों के हिंसक प्रयासों से तंग आ चुकी है। वहीं हिंसक भीड़ को नियंत्रित करने के लिए पुलिस या अर्द्धसैनिक बल की कार्रवाई से मासमू लोग मारे जाते हैं। पुलिस एवं सशस्त्र बलों के सिपाही भी बड़ी संख्या में मारे जा रहे हैं। कश्मीर की समस्या के पीछे पाकिस्तान के अपराध को सारी दुनिया जानती है। लेकिन बेंगलुरू और चेन्नई की हिंसा के पीछे तो इन्हीं प्रदेशों के राजनीतिक दल और उनसे जुड़े संगठन हैं। कावेरी जल विवाद नया नहीं है। और सुप्रीम कोर्ट तक अपना फैसला दे चुका है। जो राजनीतिक दल कर्नाटक में अपने लाखों कार्यकर्ताओं का दावा करते हैं, वे शांति स्थापना में उनकी सहायता क्यों नहीं लेते? शर्मनाक यह है कि हिंसक घटनाओं में 50 से अधिक बसें और बड़ी संख्या में ट्रक तक सार्वजनिक संपत्ति नष्ट कर दी गई। आखिरकार ये सरकारी बसें, कर्नाटक की जनता के पैसों से उनकी सुविधाओं के लिए चलती हैं। बेंगलुरू देश का सबसे संपन्न शहर और गौरवशाली आई.टी. कंपनियों का प्रधान केंद्र है। दुनिया भर के लोग इन कंपनियों के साथ जुड़े हुए हैं। हड़ताल और हिंसा से उन कंपनियों का काम भी ठप्प हो गया है। यह कैसा लोकतंत्र है, जिसमें दो मुख्यमंत्री केंद्रीय मंत्रियों के साथ बैठकर शांतिपूर्ण समाधान नहीं निकाल सकते हैं? राजनीति का पहला धर्म समाज की सेवा करना है। समाज की रक्षा के लिए सर्वसम्मति बनना भी जरूरी है।