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04 December 2015

मैसूर के बाघ पर पांसा

आउटलुक

मैसूर के बाघ के नाम से मशहूर टीपू सुल्तान पर राष्ट्रीय स्तर पर बहस जारी है और आने वाले समय में ज्यादा उग्र भी हो सकती है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखपत्र पांचजन्य में एक लंबा लेख छपा है, टीपू सुल्तान का सच- दक्षिण का औरंगजेब। इस लेख में (अंश आगे के पृष्ठों पर) विस्तार से बताया गया है कि किस तरह टीपू ने अपने शासनकाल में चार लाख से ज्यादा हिंदुओं का इस्लाम में धर्मांतरण किया। इस लेख में टीपू की कू्ररता की ऐसी दास्तां लिखी गई है जिसे पढ़क‌र लगेगा कि उससे ज्यादा क्रूर शासक तो अंग्रेज भी नहीं थे। वहीं, दूसरी तरफ, कर्नाटक से सटे राज्य तमिलनाडु के वेल्लूर जिले में जनवरी में टीपू सुल्तान के योगदान पर बड़ा आयोजन होने जा रहा है। मद्रास उच्च न्यायालय ने इस आयोजन को कुछ शर्तों के साथ मंजूरी दे दी है। उधर, भाजपा ने तमिलनाडु सरकार को चेतावनी दी है कि अगर वह टीपू सुल्तान की याद में स्मारक बनाएगी, तो यहां भी आग लग जाएगी। भाजपा के राष्ट्रीय सचिव और तमिलनाडु निवासी एच. राजा का बयान गौरतलब है कि टीपू सुल्तान गद्दार था और अगर तमिलनाडु सरकार उसका स्मारक बनाती है तो हजारों की संख्या में लोग सडक़ों पर उतर जाएंगे। इसके साथ ही, उन्होंने मशहूर सिने अभिनेता रजनीकांत को भी चेताया कि अगर उन्होंने कर्नाटक के फिल्म निर्माता अशोक खेनी की फिल्म में टीपू सुल्तान की भूमिका ली तो यह हिंदुओं से गद्दारी होगी। कर्नाटक के साथ-साथ अब तमिलनाडु में भी टीपू सुल्तान पर भाजपा और तमाम हिंदुत्ववादी संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के निर्देशन में तगड़ा ध्रुवीकरण करने की तैयारी में हैं।

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एक तरह कहा जा सकता है कि टीपू सुल्तान को भाजपा गेटवे ऑफ दक्षिण भारत के तौर पर देख रही है। इस शासक पर हंगामा खड़ा करके भाजपा ने कर्नाटक, तमिलनाडु और केरल, तीन राज्यों पर निगाहें गड़ा रखी हैं। दरअसल, टीपू सुल्तान के 16 साल लंबे शासन (7 दिसंबर, 1782 से 4 मई, 1799) का प्रभाव इन तीनों राज्यों पर गहरा पड़ा है। टीपू के पिता हैदर अली ने कर्नाटक में अपने शासन को 1763 तक मजबूत कर लिया था, जिसे टीपू सुल्तान ने केरल तक फैलाया। बैदानूर और मंगलूर को दोबारा जीता और अंग्रेजों के खिलाफ एेतिहासिक लड़ाई में फ्रांसीसियों की मदद ली। चूंकि यह एक ऐसा शासक है जिसका प्रभाव तीनों राज्यों पर पड़ा था और उसके सताए लोग, जातियां, तीनों राज्यों में ढूंढ़ी और लामबंद की जा सकती हैं, इसलिए भाजपा टीपू सुल्तान के जरिये दक्षिण भारत में लंबी लड़ाई लड़ने की तैयारी में है। कांग्रेस ने जिस तरह तमाम दबाव को दरकिनार कर टीपू पर समारोह आयोजित किया, उससे लग रहा है कि वह भी इसे लंबा खेलने की तैयारी में है।

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इतिहास के भगवाकरण की राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सुनियोजित रणनीति के तहत ही टीपू सुल्तान पर सक्रियता बनी हुई है। ऐसा नहीं है कि टीपू सुल्तान पर पहली बार ही राजनीति गरमाई हो। अभी तो इसकी वजह बना कर्नाटक सरकार द्वारा टीपू सुल्तान की 265वीं जन्मोत्सव मनाने का एलान था। इसके विरोध में भाजपा ने कर्नाटक में उग्र विरोध खड़ा किया। इस विरोध में तीन लोगों की जानें गर्ईं। माहौल जबर्दस्त ढंग से तनावपूर्ण रहा। भाजपा के साथ विरोध में बजरंग दल और विश्व हिंदू परिषद के सदस्य भारी तादाद में दिखाई दिए। इतिहास में हुई गलतियों या भ्रांतियों, जिनमें कई काल्पनिक भी होती हैं, को आधार बनाकर राजनीतिक ध्रुवीकरण करना भाजपा की पुरानी रणनीति का हिस्सा है। दक्षिण भारत की राजनीति में जगह बनाने के लिए यही रणनीति अपनाई जा रही है। टीपू सुल्तान के खिलाफ भाजपा का दांव नया है। यहां वह टीपू को सिर्फ हिंदू विरोधी ही नहीं बल्कि ईसाई विरोधी भी साबित करने पर तुली है। अगर उसका यह दांव चल गया तो कर्नाटक से लेकर केरल तक में उसके लिए रास्ता खुलेगा। हालांकि अभी इस बारे में कुछ भी कहना जल्दबाजी होगी। इस बारे में आउटलुक ने जब बेंगलूरु में सामाजिक कार्यकर्ता डॉ. वाई.एस. मोसेस से बात की तो उन्होंने इस बात से इनकार किया कि टीपू पर खेलकर भाजपा ईसाइयों के बड़े हिस्से में अपनी पैठ जमा लेगी। मोसेस ने कहा, 'टीपू हमारे लिए दूसरे शासकों की तरह ही है। ये जरूर है कि अंग्रेजों के खिलाफ बेहद आधुनिक और साहसिक युद्ध किया। इसीलिए उसे मैसूर का बाघ कहा जाता था। उसका मूल्यांकन हमें उसके कार्यकाल में ही करना चाहिए। वरना इतिहास के सारे मुर्दे किरदारों पर हम आज राजनीति करने लगेंगे। बात तो आज के हालात पर होनी चाहिए, जो नहीं हो रही है। यह गलत है। जनता कितने समय तक इतिहास के झुनझुने से बहलेगी।’ देश में बढ़ रही असहिष्णुता के खिलाफ साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने वाले कन्नड़ दलित लेखक देवनूरू महादेव भी इस सारे विवाद को दो समुदायों के बीच वैमनस्य फैलाने वाला मानते हैं।

दोनों तरफ से तर्क जो भी पेश किए जाएं, यह तो हकीकत है कि टीपू पर तलवारें खींच गई हैं, खेमे बंट गए हैं। टीपू के पक्ष में खड़े लोगों के ऊपर भाजपा और संघ से जुड़े संगठन बेहद हिंसात्मक हमला बोल रहे हैं। इसकी एक मिसाल ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित नाटककार और वरिष्ठ अभिनेता गिरीश कर्नाड द्वारा टीपू जयंती का समर्थन करने के बाद उन्हें जान से मारने की मिली धमकियों में देखी जा सकती है। गिरीश कर्नाड ने दो टूक शब्दों में कहा, 'टीपू असहिष्णु नहीं था। ये गलतफहमी अंग्रेजों के लिखे इतिहास के कारण हुई है जिसने उनकी छवि एक कट्टर शासक के तौर पर पेश की। टीपू सुल्तान अगर हिंदू होते तो उन्हें मराठा शासक छत्रपति शिवाजी के समान दर्जा मिलता।’ इसके बाद से तो उन पर कहर ही बरपा हो गया। ट्वीटर पर उन्हें जान से मारने की धमकियां मिलने लगीं, उनके पोस्टरों को जूते से पीटा गया। वैसे भी कर्नाटक में दक्षिणपंथी ताकतों के हमले लगातार तेज हो रहे हैं। तर्कवादी एम.एम. कलबुर्गी की नृशंस हत्या करने के बाद इन कट्टरपंथी हिंदुत्ववादी शक्तियों ने चिंतक प्रोफेसर के.एस. भगवान की हत्या करने की घोषणा की थी। टीपू सुल्तान के खिलाफ पैदा किए जा रहे उन्माद को कर्नाटक के चिंतक इसी दक्षिणपंथी उभार से जोड़ कर देखते हैं।

फिर भी टीपू के पक्ष में बोलने वाले कम नहीं हैं। सिर्फ दक्षिण भारत से ही नहीं, उत्तर भारत से भी तमाम राजनीतिक पार्टियों और नेताओं ने बयान दिए। संस्कृतिकर्मियों ने भी दिए। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी) के पूर्व निदेशक और ख्यातिप्राप्त रंगकर्मी रामगोपाल बजाज ने कहा, 'टीपू सुल्तान हमारे नायक थे, हैं, और रहेंगे। कुछ लोग इतिहास की पुनर्समीक्षा में लगे हुए हैं और वे तमाम तरह के भ्रम फैलाना चाहते हैं।’

टीपू सुल्तान पर विवाद बहुत पुराना है। अगर गहराई से इसका विश्लेषण किया जाए तो दिखाई देगा कि बहुत सिलसिलेवार ढंग से इसे बीच-बीच में हवा दी गई। वर्ष 1989 में बॉलीवुड अभिनेता संजय खान ने टीपू सुल्तान पर केंद्रीत एक टीवी सीरियल तैयार किया सॉर्ड ऑफ टीपू सुल्तान के नाम से। उस समय भी इसके विरोध में बड़ी आवाजें उठीं और अदालत के आदेश के बाद इसे दिखाया गया। सितंबर 2003 में जब शराब व्यापारी विजय माल्या ने लंदन में नीलामी में 1.5 करोड़ रुपये में टीपू सुल्तान की तलवार खरीदी थी, उस पर भी बड़ा हंगामा मचा था। इसके बाद सितंबर 2005 में भाजपा के समर्थन से बनी कर्नाटक सरकार के शिक्षा मंत्री ने टीपू सुल्तान को पाठ्यपुस्तकों से बाहर निकालने की बात रखी थी, उस पर भी बहुत हंगामा हुआ था। देश के 33 वरिष्ठ इतिहासकारों ने इसका कड़ा विरोध किया था। इस विरोध का नेतृत्व करने वालों में इतिहासकार अर्जुन देव, सव्यसाची भट्टाचार्य, डीएन.झा, आर.एस. शर्मा, आदित्य मुखर्जी, इरफान हबीब आदि शामिल थे। उस समय यह प्रयास रोका गया था। जुलाई 2012 में टीपू सुल्तान के पक्षकारों की तरफ से बैटिंग हुई। इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग (आईयूएमएल) ने तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से आग्रह किया था कि बेंगलूरु हवाई अड्डे का नाम बदलकर टीपू के नाम पर रखा जाए। इसके बाद नवंबर 2012 में श्रीरंगपट्टनम को अल्पसंख्यक आयोग द्वारा उन पांच जगहों में से एक चुना गया, जहां केंद्रीय विश्वविद्यालय बनाने की बात थी। इसमें से आधी सीटें अल्पसंख्यकों के लिए आरक्षित करने की बात थी। इस प्रयास को भी टीपू से जोड़कर देखा गया क्योंकि श्रीरंगपट्टनम टीपू की राजधानी थी। वर्ष 2015 में कर्नाटक सरकार द्वारा टीपू की जयंती मनाने के फैसले के विरोध में तो भाजपा सहित बाकी हिंदुत्ववादी संगठनों ने जमकर विरोध किया। इसी बीच सितंबर 2015 में कन्नड़ फिल्म निर्माता अशोक खेने ने टीपू सुल्तान पर फिल्म बनाने और उसमें टीपू का किरदार रजनीकांत से करवाने की बात कही तो दोनों भी भाजपा के निशाने पर आ गए।

टीपू के महिमामंडन का विरोध करने वालों का कहना है कि टीपू से बेहतर शासक हुए हैं, उन पर बात होनी चाहिए। मैसूर से भाजपा के सांसद प्रताप सिन्हा का कहना है कि अगर राज्य सरकार किसी मुस्लिम शासक को ही बढ़ाना चाहती थी तो मुस्लिम नेताओं की कमी नहीं है। मैसूर के दीवान सर मिर्जा दीवान की जयंती मना सकती थी। लेकिन ऐसा न करके उसने टीपू का उत्सव करने का फैसला किया, जिनके हाथ खून से सने हुए हैं। हालांकि टीपू के पक्ष में बोलने वालों के पास भी बहुत तर्क हैं। उनका कहना है कि टीपू ने जिस तरह अंग्रेजों के खिलाफ बहादुराना संघर्ष किया था। उस समय दुनिया में सिर्फ तीन लोगों ने ब्रिटिश हुकूमत का विरोध किया था। अमेरिका में जॉर्ज वाशिंगटन और टी.जेफरसन, फ्रांस में नेपोलियन और भारत में टीपू सुल्तान ने। टीपू की लड़ाई का ऐतिहासिक महत्व रहा है। वहीं इतिहासकार रामचंद्र गुहा का कहना है कि वह बाकी सम्राटों की तरह एक सम्राट था और उसकी अच्छाइयों- बुराइयों पर इतिहास से इतर बहस की क्या जरूरत है। 

हर बार जब यह विवाद सामने आया तो इसने पक्ष-विपक्ष को ऐसे खेमों में बांध दिया। अब टीपू का विरोध करने वाला दक्षिणपंथी खेमा पहले से कई गुना अधिक उग्र और संगठित भी है। इसकी वजह भी राजनीतिक है। केंद्र में उनकी जबर्दस्त बहुमत वाली सरकार है। भाजपा की कई राज्यो सरकारें लंबे समय से शासन में हैं। भारत को हिंदुओं का राष्ट्र बनाने का राष्ट्रीय स्वयंसेवक का स्थायी एजेंडा पूरे उफान पर है। असम के राज्यपाल पी.बी. आचार्य का यह कहना कि हिंदुस्तान हिंदुओं का देश हैं, मुसलमानों को जहां जाना हो, वे जा सकते हैं। उत्तर प्रदेश में दादरी में गोमांस की अफवाह पर मुस्लिम की हत्या। फिर इस हत्या को जायज ठहराने वाले मंत्रियों-नेताओं के बयान। ये सारी कड़ियां एक-दूसरे से जुड़ी हुई हैं। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में इतिहासकार रहे प्रो. आदित्य मुखर्जी ने मुद्दे को व्यापक फलक देते हुए कहा कि इतिहास की सोच ही निशाने पर है। क्या एक डॉक्टर आज प्रधानमंत्री से बहस कर सकता है। जब वह कहते हैं कि भगवान गणेश और कर्म की उत्पत्त‌ि में प्लास्टिक सर्जरी और जेनेटिक साइंस की मदद ली गई थी? यह इतिहास भी नहीं है। यह एक निक्वन स्तर की कल्पना है।

बहरहाल, अब हम चाहें या न चाहें, टीपू सुल्तान का जिन्न इतिहास के पन्नों से बाहर निकल आया है। संघ का इतिहास की पुनर्व्याख्या, इतिहास को हिंदू-मुस्लिम खांचों में देखने-दिखाने की रणनीति को राजनीतिक वरदहस्त है। इसके जरिये राजनीतिक लामबंदी और ध्रुवीकरण का दूरगामी लक्ष्य है। टीपू गेटवे ऑफ साउथ, यानी दक्षिण में भाजपा का प्रवेश द्वार बनता है कि नहीं, बड़ा सवाल है।

साथ में अजय सुकुमारन

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OUTLOOK 04 December, 2015
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