Advertisement
04 September 2022

मुफ्त सरकारी सेवाएं: क्या रेवड़ी, क्या कल्याणकारी?

पीएम उवाचः कुछ पार्टियां ‘रेवड़ी कल्चर’ को बढ़ावा दे रही हैं

आख्यान बनाने और बिगाड़ने के इस दौर में कई बहसें गड़े मुर्दों की तरह ऐसे उभर आती हैं मानो वे पूरी फिजा को बदल डालेंगी। और कई बार बड़े मुद्दे भी ऐसे पेश आते हैं कि मकसद सिर्फ फौरी राजनीति हो। सब्सिडी, खासकर कल्याणकारी रियायतें और मुफ्त सरकारी सेवाओं का मुद्दा ऐसा ही रहा है। उदारीकरण के बाद नब्बे के दशक से ही बाजार समर्थकों के बीच इस पर बहस शुरू हो गई थी, लेकिन यह सार्वजनिक और राजनैतिक बहस कभी नहीं बन पाई थी। अब इसे राजनैतिक विरोध को साधने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। अंग्रेजी में जिसे फ्रीबी और हिंदी में खैरात या रेवड़ी बांटना कहा जाता है, उस पर विवाद की शुरुआत  22 जनवरी 2022 को भाजपा नेता अश्विनी कुमार उपाध्याय द्वारा सुप्रीम कोर्ट में लगाई एक अर्जी से होती है। तब उत्तर प्रदेश के चुनाव प्रचार के दिन थे और समाजवादी पार्टी का गठजोड़ मुफ्त बिजली-पानी वगैरह देने का वादा कर रहा था। अर्जी में अदालत से मांग की गई थी कि चुनाव से पहले वोटरों को लुभाने के लिए मुफ्त उपहार (फ्रीबी) का वादा करने वाली पार्टियों की मान्यता रद्द की जाए क्योंकि अगर चुनाव से पहले पैसे बांटना अपराध है तो चुनाव जीतने के बाद ऐसा करना भी अपराध है। बीती 16 जुलाई को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस मुद्दे को यह कह कर गर्मा दिया कि कुछ पार्टियां ‘रेवड़ी कल्चर’ को बढ़ावा दे रही हैं जो देश के आर्थिक विकास में एक बाधा है। उनकी इस टिप्पणी को आम आदमी पार्टी, कांग्रेस, टीआरएस, वाइएसआर कांग्रेस और द्रमुक जैसी पार्टियों ने शर्मनाक बताया। ‘आप’ ने कहा कि लोगों को मुफ्त गुणवत्तापूर्ण सेवा देना मुफ्त रेवड़ी नहीं है। कांग्रेस ने कहा कि बड़े-बड़े कॉरपोरेट घरानों का कर्ज माफ करना रेवड़ी है। टीआरएस ने कह दिया कि प्रधानमंत्री गरीबों को मुफ्त में उपलब्ध कराई गई कल्याणकारी योजनाओं का अपमान कर रहे हैं।

इस बढ़ते विवाद के बीच सुप्रीम कोर्ट ने भाजपा नेता की याचिका पर सुनवाई शुरू की। अदालत के मुताबिक, “यह ‘गंभीर मुद्दा’ है और हम राजनीतिक दलों को वादा करने से रोक नहीं सकते हैं लेकिन सवाल यह है कि सही वादे क्या हैं। क्या हम मुफ्त शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली और पानी को ‘फ्रीबीज’ कह सकते हैं?” सुनवाई के दौरान आम आदमी पार्टी की ओर से पैरवी कर रहे वकील अभिषेक मनु सिंघवी ने कहा कि फ्रीबी और कल्याणकारी योजनाओं में फर्क है। केंद्र सरकार की तरफ से सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा है कि सामाजिक कल्याण का मतलब सब कुछ मुफ्त में वितरित करना नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने इसे तीन जजों की बेंच के पास भेज दिया और चार हफ्ते बाद फिर से सुनवाई होनी है।

Advertisement

इसके पहले 2013 में सुप्रीम कोर्ट ‘सुब्रमण्यम बालाजी बनाम तमिलनाडु’ केस में ‘मुफ्त की घोषणाओं और वादों’ को लेकर एक बड़ा फैसला सुना चुका है। इस केस में याचिकाकर्ता ने तमिलनाडु विधानसभा चुनाव जीतने के बाद द्रमुक द्वारा मुफ्त में कलर टीवी बांटने के वादे को कोर्ट में 2006 में चुनौती दी थी। उस वक्त सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि चुनावी घोषणापत्र में किए गए वादों को ‘भ्रष्ट’ नहीं कहा जा सकता है।

सवाल यह उठता है कि आखिर खैरात और कल्याणकारी योजना के बीच फर्क क्या है और इससे अर्थव्यवस्था पर कैसा असर पड़ता है। दिग्गज विकास अर्थशास्त्री जयति घोष आउटलुक से कहती हैं, “दुनिया के अधिकतर देशों में इसे किसी सवाल की तरह भी नहीं देखा जाएगा। क्या मुफ्त पानी, मुफ्त शिक्षा, मुफ्त बिजली, मुफ्त खाना और मुफ्त आवास खैरात हैं? नहीं, यह मानवाधिकार है क्योंकि हम नहीं चाहते कि भारत का कोई नागरिक भूखा रहे और सोने के लिए उसके सिर पर छत न हो।” अर्थशास्त्री अरुण कुमार आउटलुक से कहते हैं, “आज जिस चीज को फ्रीबी कहा जा रहा है दरसअल वह कल्याणकारी उपाय हैं जिससे अर्थव्यवस्था को ढेरों फायदे होते हैं।” वे कहते हैं कि 1947 तक भारत और दक्षिण -पूर्व एशिया के सभी देशों का कुल विकास स्तर समान था, लेकिन 1965 आते-आते वे सभी देश हमसे आगे निकल गए। इसका सिर्फ एक कारण है कि शुरुआत में उन्होंने शिक्षा और स्वास्थ्य पर ज्यादा फोकस किया, जो हम नहीं कर पाए।

बढ़ती सब्सिडी, बढ़ता कर्ज

भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआइ) कल्याणकारी योजनाओं को दूसरे नजरिये से देखता है। आरबीआइ ने 16 जून को जारी रिपोर्ट, ‘स्टेट फाइनेंस: ए रिस्क एनालिसिस’ में कहा है कि राज्यों के राजस्व में मंदी और बढ़ते सब्सिडी के बोझ ने राज्य सरकार के कर्ज को और बढ़ा दिया है। आरबीआइ ने नॉन-मेरिट फ्रीबी को भी इसका एक कारण माना है। आउटलुक से पूर्व केंद्रीय वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने कहा, “सब्सिडी को फ्रीबी नहीं कहा जा सकता है। जब मैं वित्त मंत्री था तब सब्सिडी पर एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी जिसमें ‘मेरिट’ और ‘नॉन-मेरिट’ सब्सिडी के बीच अंतर बताया गया था। मेरिट सब्सिडी को ऐसी सब्सिडी के रूप में परिभाषित किया गया था जिसमें कई तरह के परोक्ष लाभ हैं। प्रधानमंत्री को यह बताना चाहिए कि उनके अनुसार कौन सी मेरिट सब्सिडी है जो जारी रखने योग्य है और कौन सी नॉन-मेरिट।”

आरबीआइ की रिपोर्ट में बताया गया है कि राज्यों के कुल राजस्व व्यय में सब्सिडी का हिस्सा 2019-20 में 7.8 प्रतिशत से बढ़कर 2021-22 में 8.2 प्रतिशत हो गया है और इसमें पंजाब और छत्तीसगढ़ जैसे राज्य सबसे ऊपर हैं, जो अपने राजस्व व्यय का 10 प्रतिशत से अधिक सब्सिडी पर खर्च करते हैं। रिपोर्ट के अनुसार कर्ज-जीएसडीपी का अनुपात पंजाब, राजस्थान, केरल, पश्चिम बंगाल, बिहार, आंध्र प्रदेश, झारखंड, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और हरियाणा में सबसे ज्यादा है। आरबीआइ ने कहा है कि इन राज्यों के वित्तीय स्वास्थ्य का सावधानीपूर्वक मूल्यांकन किया जाना चाहिए क्योंकि उनका सामाजिक कल्याण पर अधिक ध्यान केंद्रित है।

आरबीआई की यह चिंता कितनी सही है, इस पर पी चिदंबरम कहते हैं, “राजकोषीय सेहत महत्वपूर्ण है, लेकिन जब तक एक राज्य के पास उधार लेने और चुकाने की क्षमता है तब तक हमें स्वास्थ्य, शिक्षा और अन्य कल्याणकारी उपायों पर होने वाले खर्च के बारे में ज्यादा चिंता नहीं करनी चाहिए।” जानकार मानते हैं कि राज्यों पर बढ़ते कर्ज की जिम्मेदारी केंद्र की है क्योंकि जब राज्य कुछ उधार लेता है तो केंद्र और आरबीआइ से अनुमति लेता है। फिर सवाल यह उठता है कि जब राज्यों पर इतना कर्ज बढ़ रहा था तब केंद्र सरकार ने इस पर ध्यान क्यों नहीं दिया? अरुण कुमार कहते हैं कि राज्यों के हाथ में सरकार की पूरी कमाई का 41 प्रतिशत जाना चाहिए लेकिन जाता मात्र 30 प्रतिशत ही है। अगर ऐसा होगा तो राज्य अपनी जरूरतें कर्ज लेकर ही पूरा करेंगे।

सब्सिडी कितनी जरूरी?

अर्थशास्त्री अरुण कुमार गरीबों को दी जाने वाली सब्सिडी के पक्ष में तर्क देते हैं कि 1980 तक अधिकतर अफ्रीकी देशों की आर्थिक ग्रोथ लगभग नेगेटिव थी, जिस पर वर्ल्ड बैंक और आइएमएफ ने कहा था कि इन देशों को सेफ्टी नेट की जरूरत है। इसके बाद वहां पर शिक्षा और स्वास्थ्य आदि पर खर्च बढ़ा और आज इनकी ग्रोथ पॉजिटिव है। वो कहते हैं कि अगर सरकार सब्सिडी रोकती है या कम करती है तो एक भयंकर सामाजिक विस्फोट होगा और अर्थव्यवस्था चरमरा जाएगी। नोबेल पुरस्कार विजेता भारतीय अर्थशास्त्री अभिजीत बनर्जी भी यह कह चुके हैं कि सरकार को खर्च खुले हाथों से करना चाहिए और कॉर्पोरेट करों में कटौती के बजाय सरकार को नीचे के 60 प्रतिशत लोगों के हाथों में पैसा डालना चाहिए क्योंकि इससे अर्थव्यवस्था पर सकारात्मक असर पड़ता है।

भाजपा मुफ्त योजनाओं को लेकर सवाल खड़ी कर रही है लेकिन चुनावों में लोकलुभावन वादे करने में वह खुद किसी से पीछे नहीं है। ब्लूमबर्ग क्विंट में प्रकाशित आंकड़ों के अनुसार 2020-21 में खाद्य, पेट्रोल और उर्वरकों पर केंद्र सरकार का सब्सिडी बिल पिछले वर्ष के 1.1 प्रतिशत से बढ़कर जीडीपी का 3 प्रतिशत हो गया। अरुण कुमार कहते हैं कि पंजाब का ऋण-जीएसडीपी अनुपात 45 प्रतिशत है जो अन्य राज्यों की तुलना में सबसे ज्यादा है लेकिन केंद्रीय स्तर पर यही आंकड़ा 70 प्रतिशत तक पहुँच गया है। वे सवाल करते हैं कि जब केंद्र अपने राजनीतिक हित साधने के लिए ऐसा करेगा तो राज्य क्यों नहीं करेंगे? 

अर्थशास्त्री मानते हैं कि सरकार को गरीबों के हाथों में पैसा देना चाहिए ताकि वे इसे खर्च कर सकें और बाजार में मांग बढ़ सके। अगर सरकार वर्ल्ड बैंक द्वारा उस रिपोर्ट का अध्ययन करे जिसमें कहा गया है कि 2005-2012 के बीच जो लोग भी गरीबी से बाहर आए हैं वे मात्र एक आय के झटके के बाद फिर से गरीबी के दलदल में धंस जाएंगे, तब उसे समझ में आ जाएगा कि इस वक्त देश को इन कल्याणकारी योजनाओं की कितनी ज्यादा जरूरत है। इसके बावजूद कुछ जानकार इस मामले में एक लक्ष्मण रेखा की बात बेशक कर रहे हैं। उनका कहना है कि सभी को सब कुछ देने के बजाय उन्हें सब कुछ दिया जाए जो गरीबी रेखा के नीचे हों। ऐसा होने से जरूरतमंद की जरूरतें पूरी होंगी और सरकारी खजाने पर जरूरत से ज्यादा भार भी नहीं पड़ेगा।

अब आप हिंदी आउटलुक अपने मोबाइल पर भी पढ़ सकते हैं। डाउनलोड करें आउटलुक हिंदी एप गूगल प्ले स्टोर या एपल स्टोरसे
TAGS: Narendra Modi, Freebie, Welfare Schemes, BJP, Rajiv Nayan Chaturvedi, Supreme Court, Aam Aadmi Party, राजीव नयन चतुर्वेदी
OUTLOOK 04 September, 2022
Advertisement