स्वास्थ्य: वादों की बारिश में सेहत बेदम
“तकरीबन आधी सदी बाद डब्ल्यूएचओ के पुराने संकल्प को दोहराना यह बताता है कि नारे उछाल कर हकीकत छुपाए रखो”
अभी गुजरे विश्व स्वास्थ्य दिवस (7 अप्रैल) की थीम डब्लूएचओ ने ‘सबके लिए स्वास्थ्य’ तय की थी। यही नारा 45 साल पहले भी दिया गया था। 1977 में विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) की तीसवीं विश्व स्वास्थ्य सभा ने सत्रह दिनों की (2-19 मई 1977) 194 सदस्य देशों ने मैराथन बैठक के बाद ‘2000 तक सबको स्वास्थ्य’ का संकल्प उठाया था। दुनिया भर में इस घोषणा और पहल की सराहना हुई थी, लेकिन लक्ष्य के 23 वर्षों के बाद यह नारा जुमला सिद्ध हुआ। उस दौरान सरकारों की पहल और स्वास्थ्य संबंधी कार्यक्रमों के दिखावटी रुझान को देख कर ‘लोगों के स्वास्थ्य के अधिकार’ की गारंटी की मांग उठने लगी थी। उस दौरान ‘सबके लिए स्वास्थ्य’ के संकल्प के प्रति हमारे देश की सरकार कितनी गंभीर थी, इसका अंदाजा इसी से लगा सकते हैं कि तब सरकार स्वास्थ्य पर कुल जीडीपी का एक फीसद भी खर्च नहीं कर पा रही थी। जाहिर है, संकल्प और घोषणा के बावजूद लोगों का स्वास्थ्य सरकार की प्राथमिकता सूची में नहीं था। बाद में 2000 से 2015 तक ‘मिलेनियम डेवलपमेंट गोल’ की घोषणा कर दी गई। फिर 2015 से 2030 तक के लिए ‘सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल’ का लक्ष्य तय कर दिया गया।
यानी अमल हो या न हो पर जुमलों की बारिश करते रहो, ताकि कम से कम लोग नाउम्मीद तो नहीं होंगे! भारत सरकार के नीति आयोग ने 27 दिसंबर 2021 को राज्य स्वास्थ्य सूचकांक का चौथा संस्करण जारी किया। इस रिपोर्ट के अनुसार देश का सबसे ज्यादा आबादी वाला राज्य उत्तर प्रदेश (30.57 अंक के साथ) सबसे निचले पायदान पर है जबकि कम आबादी वाला राज्य केरल (82.2 अंक के साथ) राज्य सूचकांक में सबसे ऊपर है। इसकी मिसाल उत्तर प्रदेश में कोविड-19 की दूसरी लहर में ’21 में गंगा की बहती लाशों की शक्ल में दिखी, जबकि केरल का रिकॉर्ड अपेक्षाकृत बेहतर रहा। हिन्दी पट्टी के लगभग सभी राज्य स्वास्थ्य सूचकांक में अच्छी स्थिति में नहीं हैं। बिहार (31),मध्य प्रदेश (36.72), हरियाणा (49.26),असम (47.74), झारखंड (47.55), ओडिशा (44.31), उत्तराखंड (44.21), राजस्थान (41.33) जैसे राज्यों का इंडेक्स स्कोर 50 से कम ही है। जाहिर है कि स्वास्थ्य सूचकांक की यह दशा ‘सबके लिए स्वास्थ्य’ के जुमले को यथार्थ में कैसे बदल पाएगी? बिना मजबूत स्वास्थ्य प्रणाली के जन-जन तक स्वास्थ्य को पहुंचाना भला कैसे संभव होगा?
हमारे देश में आम लोगों के स्वास्थ्य की चिंता में महत्वपूर्ण है आम आदमी की अपने भविष्य के प्रति आशंका। इसके अलावा बढ़ते रोग, एलोपैथिक दवाओं का बेअसर होना, रोगाणुओं-विषाणुओं का और घातक होना, नए विषाणुओं का आक्रमण, बढ़ती आबादी, बढ़ता कुपोषण, गरीबी वगैरह गंभीर समस्याएं खड़ी कर रहे हैं। इन सबमें सबसे ज्यादा दिक्कतें कुछ लोगों की बढ़ती अमीरी और उसकी वजह से बढ़ती विषमता से खड़ी हो रही है। समाधान के रूप में डब्लूएचओ तथा विश्व व्यापार संगठन (डब्लूटीओ) ‘‘स्वास्थ्य में निवेश’’ की बात करता है। दोनों अंतरराष्ट्रीय संगठनों ने इसके लिए पीपीपी (पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप) मॉडल को अपनाने का सुझाव दिया, लेकिन पिछले तीन दशकों में रोग भी जटिल हुए और विषमता भी बढ़ी। डब्लूएचओ की शुरुआती रिपोर्ट पर गौर करें तो पता चलता है कि संपन्न देशों में लोगों की स्वास्थ्य समस्याएं ज्यादातर अत्यधिक अमीरी से उत्पन्न हुई जबकि तीसरी दुनिया के विकासशील और अविकसित देशों में बीमारी की वजह संसाधनों की कमी, कुपोषण और गंदगी ही है। डब्लूएचओ को अन्तत: यह मानना पड़ा था कि ‘‘अत्यधिक गरीबी’’ भी एक रोग है और इसे खत्म किए बगैर ‘‘सबको स्वास्थ्य’’ का सपना कभी पूरा नहीं हो सकता।
बहरहाल, जहां देश को स्वस्थ बनाने के लिए आर्थिक गैर-बराबरी को खत्म कर जनस्वास्थ्य को जनसुलभ बनाने की योजना पर काम करना था, वहां स्वास्थ्य के लिए निजी कंपनियों को मनमानी की छूट देना, बीमारी से बचने के लिए सोशल डिस्टेन्सिंग एवं धार्मिक/नस्लीय भेद खड़े करना जैसे उपाय प्रस्तुत किए जाएं और स्वास्थ्य के नाम पर चिकित्सकों को मुख्य भूमिका देने के बजाय पुलिस को और ताकत दे दी जाए तो समझा जा सकता है कि सरकार के लिए यह ‘‘आपदा में अवसर’’ उसकी राजनीतिक स्वार्थपूर्ति का हथियार भर हो सकता है, महामारी से बचने का उपाय नहीं। जनस्वास्थ्य के लिए जनआन्दोलन, जनचेतना और जनभागीदारी की ज्यादा जरूरत है।
सन् 1990 के बाद स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण की प्रक्रिया तेज होने से आम लोगों को सर्वसुलभ स्वास्थ्य की सम्भावनाएं तो एक तरह से क्षीण हो गई हैं। जब स्वास्थ्य सेवाएं कंपनियों के मुनाफे का जरिया हों तब यह कैसे भरोसा करें कि सब को स्वास्थ्य का सपना साकार हो पाएगा? अभी बीते बरस जब कोरोना महामारी जानलेवा तांडव मचा रही थी तब निजी क्षेत्र के अस्पताल और डॉक्टर क्या कर रहे थे यह लोगों को बताने की जरूरत नहीं है। कोरोनाग्रस्त व्यक्ति निजी अस्पताल में 25-35 लाख रुपये चुकाकर इलाज करा रहा था। धन के अभाव में बताते हैं कि 60 फीसद से ज्यादा मरीजो कीं मौत हुई। आजादी के 75 वर्ष बाद भी सरकारी अस्पतालों में बुनियादी सुविधाओं का अभाव था। इसी दौरान देश में मंदिर बनाने के लिए लोग हजारों करोड़ रुपया दान में दे रहे थे लेकिन वही लोग कोरोना संक्रमण के बाद आक्सीजन और दवा के लिए दर दर की ठोकरें खा रहे थे। जब अस्पतालों और रोगियों के लिए दवा और ऑक्सीजन खरीदे जाने थे तब सत्ताधारी राजनीतिक दल चुनाव और विधायक खरीद रहे थे। यदि देश में सबके लिए स्वास्थ्य का अधिकार कानून होता तो शायद उस दौरान लाखों लोगों की मौत न होती और न ही सरकार को मौतों के आंकड़े छुपाने पड़ते।
स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण की शुरुआत अमेरिका से हुई। अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के सत्ता में आने के बाद किसी तरह से राज्य स्वास्थ्य सेवाएं शुरू हुईं लेकिन ओबामा के दोनों कार्यकाल में भी स्वास्थ्य के निजी ढांचे को प्रभावित नहीं किया जा सका। मसलन, कोरोना महामारी के दौरान दुनिया भर में सबसे ज्यादा मौतें अमरीका में दर्ज हुईं, जिनमें गरीब, बेसहारों की संख्या काफी ज्यादा थी। भारत जैसे विशाल देश और लगभग 1.4 अरब आबादी के लिए अभी भी जिस आधारभूत संरचना की जरूरत है, उसे पूरा करने की संवैधानिक जिम्मेदारी के बावजूद सरकार स्वास्थ्य जैसे अहम मसले को मुनाफे के लिए कंपनियों के हवाले करती जा रही है। हालांकि सबको स्वास्थ्य का संकल्प हमारे संविधान में वर्णित है लेकिन इस पर ईमानदार अमल अब तक किसी भी सरकार ने नहीं किया है। 1946 में ही जनस्वास्थ्य के लिए बनी भोरे समिति ने भी सबको स्वास्थ्य के संकल्प को पूरा करने के लिए गांव स्तर पर प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक पिरामिड की संरचना वाले मॉडल की सिफारिश की थी जिस पर किसी भी सरकार ने अमल नहीं किया।
निजीकरण के दौर में सबके लिए स्वास्थ्य का सपना देखने से पहले एक आंकड़ा जान लीजिए। विश्व मलेरिया रिपोर्ट 2013 के अनुसार 20.7 करोड़ मामले दर्ज किए गए थे जिसमें 6,27,000 लोग बीमारी से मारे गए थे। मलेरिया के दो-तिहाई मामले विकासशील देशों में पाए जाते हैं। भारत में राष्ट्रीय मलेरिया उन्मूलन कार्यक्रम (एनएमईपी) 1953 में शुरू किया गया। फिर, 1958 में राष्ट्रीय मलेरिया नियंत्रण कार्यक्रम (एनएमसीपी) शुरू हुआ। उसके बाद 1990 में विश्व बैंक के दबाव में सरकार ने कार्यक्रम को बदल कर राष्ट्रीय मलेरिया विरोधी कैंपेन (एनएएमसीपी) कर दिया। इसके बावजूद समस्या गंभीर होती गई।
डब्लूएचओ का ‘सबके लिए स्वास्थ्य’ का संकल्प सुनने में अच्छा लगता है, लेकिन वैश्वीकरण और स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण के दौर में क्या यह विशुद्ध छलावा नहीं है। सरकारों की प्राथमिकता में सेहत, शिक्षा, रोजगार वगैरह की अहमियत दोयम दर्जे की है। इसलिए लोग अपने जीवन रक्षा के बुनियादी हक को पाना चाहते हैं तो स्वास्थ्य की गारंटी की मांग के साथ निजीकरण का विरोध भी करना होगा। जन को दुश्मन के रूप में पेश किया जाएगा तो देश में सेहत को स्थापित करना आसान नहीं होगा। सरकारें पहल नहीं करतीं तो समाज और लोग अपनी सेहत के लिए एकजुट हों और जनस्वास्थ्य की स्वयं उद्घोषणा करें।
(लेखक जन स्वास्थ्य वैज्ञानिक तथा राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त होमियोपैथिक चिकित्सक हैं)