पी.एम. बनना-बनाना कठिन
यूं 1972 के आसपास स्वामी को अटलजी की अनुकंपा से ही जनसंघ में प्रवेश मिला था। लेकिन 1977 में जनता पार्टी बनने के बाद स्वामी के पर लग गए और एकला चलो की राजनीति के चक्कर में वह अटल-आडवाणी ही नहीं चंद्रशेखर, देवीलाल, नरसिंहराव, सुश्री जयललिता सहित कई नेताओं के साथ कभी दोस्ती-कभी दुश्मनी करते रहे। अटलजी से भी उनकी दूरी हो गई थी। इसलिए अब उनका यह दावा हास्यास्पद लगता है कि 1998 और फिर 1999 में अटलजी के बजाय आडवाणी प्रधानमंत्री बन सकते थे। आडवाणी सहित संघ-भाजपा ही नहीं दुनिया जानती थी कि अटल बिहारी वाजपेयी आडवाणी से वरिष्ठ एवं लोकप्रिय नेता थे। असलियत यह है कि तीन दशक पहले उनके करीबी भी प्रेमवश आडवाणीजी को अटलजी का ‘मुनीम’ कहा करते थे। अटलजी नेहरू युग में सांसद हो चुके थे और उसके 20 साल बाद आडवाणी दिल्ली महानगर परिषद और फिर संसद में पहुंचे थे। अटलजी ने उन्हें राज्यसभा का सदस्य बनवाया और देर-सबेर आडवाणी लोकसभा चुनाव के लायक बन सके। यह ठीक है कि 2014 के लोकसभा चुनाव और नरेंद्र मोदी की उम्मीदवारी घोषित होने से पहले वह स्वयं प्रधानमंत्री पद के दावेदार थे। लेकिन 2004 में पार्टी की पराजय के साथ आडवाणी और राजनाथ सिंह की दावेदारी कमजोर हो चुकी थी। इस दृष्टि से देखा जाए तो भारतीय राजनीति में प्रधानमंत्री बनने की तमन्ना रखने वाले नेता और उनके करीबी यह दावा कर सकते हैं कि उन्होंने दूसरे साथी के लिए रास्ता छोड़ा। वास्तव में राजनीति करने वाले इतने महान त्यागी नहीं हो सकते। राजनीतिक दावेदारी तो पं. नेहरू के लिए पहले जिन्ना की और फिर सरदार पटेल की भी थी। लेकिन नेहरू सर्वाधिक सफल हुए। इंदिरा गांधी को तो अपने से वरिष्ठ और ताकतवर नेता मोरारजी देसाई से मुकाबला करना पड़ा। लेकिन इंदिरा गांधी सर्वाधिक सफल और लोकप्रिय नेता साबित हुईं। राजीव गांधी के प्रधानमंत्री बनने से पहले वरिष्ठता के आधार पर कुछ समर्थकों ने प्रणव मुखर्जी का नाम आगे बढ़ा दिया था। बहरहाल, प्रणव बाबू समय पर ही पीछे हट गए और बाद में निश्चित रूप से उनकी दावेदारी सही थी। लेकिन नरसिंह राव के कार्यकाल से सपना देख रहे मनमोहन सिंह सफल हो गए। हां, दादा प्रणव मुखर्जी अंततोगत्वा राष्ट्रपति बन गए। भाजपा में आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, राजनाथ सिंह, सुषमा स्वराज प्रधानमंत्री पद की दौड़ में थीं। लेकिन नरेंद्र मोदी बाजी मार ले गए। इसलिए दावेदारी के साथ पर्याप्त समर्थन, लोकप्रियता एवं राजनीतिक चातुर्य ही सफलता दिलाता है। जब जो होना होता है, तब वैसा हो या न हो मंजिल के लिए चलते रहना होता है।