दही हांडी पर न्याय
भारत की न्याय व्यवस्था पर सबकी गहरी आस्था है। इसलिए सही न्याय की अपेक्षा सबको है और रहेगी। सामान्यतः अदालती फैसलों पर कानूनविद टिप्पणी और आलोचना करते रहे हैं। केवल न्यायाधीशों और उनकी मंशा पर सवाल नहीं उठाए जाते। इस दृष्टि से दही हांडी उत्सव में मटकी फोड़ की ऊंचाई पर अंकुश से जुड़े फैसले और भावी कार्रवाई पर अदालत के बाहर और अंदर भी बहस होती रहेगी। पहली बात यह है कि इस विवाद को सांप्रदायिक रंग नहीं दिया जाना चाहिए। दूसरी यह कि इस एक निर्णय को लेकर संपूर्ण न्याय व्यवस्था पर प्रश्न उठाना अनुचित होगा। पुराने अनुभव बताते हैं कि सुप्रीम कोर्ट की एक पीठ निर्णयों को बड़ी बेंच के सामने पुनिर्वचार के लिए लाया जाता रहा है और निर्णय भी बदले हैं। आउटलुक हिंदी ने कुछ सप्ताह पहले (4 जुलाई 2016 का अंक) एक रिपोर्ट में ऐसे फैसलों का विवरण प्रकाशित किया था, जिससे यह प्रमाणित होता है कि सुप्रीम कोर्ट के वर्षों पुराने निर्णय प्रशासकीय एवं अन्य कारणों से आज तक लागू नहीं हो पाए। जैसे सरकार से मुफ्त या नाममात्र एक रुपये की कीमत चुकाकर करोड़ों रुपयों की जमीन और फिर इमारत बनाने वाले कई बड़े अस्पताल आज तक वहां पहुंचने वाले गरीब का मुफ्त इलाज-आपरेशन नहीं कर रहे हैं। इसी तरह पुलिस व्यवस्था में व्यापक बदलाव की याचिका पर हुए फैसले को भी राज्य सरकारें आज तक ठीक से क्रियान्वित नहीं कर पाईं। शराब पीकर गाड़ी चलाने से होने वाली मौत पर दस साल की सजा देने का फैसला अभी तक लागू नहीं हुआ। हां, अब सरकार मोटर गाड़ी कानूनों में संशोधन की तैयारी कर रही है। मतलब यह कि सर्वोच्च अदालत के फैसलों पर अमल तो सरकारें एवं स्थानीय प्रशासन द्वारा ही संभव है। यूं अदालतें कुछ तारीखों के बाद ही बड़े फैसले दे देती हैं और कुछ मामले वर्षों तक लटके रहते हैं। इसलिए न्यायाधीशों की नियुक्ति पर सरकार से टकराव की वर्तमान स्थिति में सुलझाने के लिए चल रहे विचार-विमर्श के दौरान फैसलों के प्रशासकीय क्रियान्वयन पर भी विचार करना उचित होगा। सम्मानित न्यायालयों को फैसले देते समय उसके व्यावहारिक-सामाजिक एवं प्रशासकीय क्रियान्वयन की असली दिक्कतों पर भी गंभीरता से सोचना होगा। इससे न्याय व्यवस्था की प्रतिष्ठा ही बढ़ेगी।