सजा से नेताओं को सबक
वहीं देश के नेताओं, उनके परिजनों और नजदीकी लोगों के लिए भी बड़ा सबक है। सत्ता की राजनीति में कई नेताओं, अफसरों, रिश्तेदारों और दलालों को इतना अहंकारी नशा हो जाता है कि वे वैध-अवैध तरीकों से धन संपत्ति बटोरने लगते हैं। पदों पर आसीन होने से मिले अधिकारों के दुरुपयोग के हरसंभव तरीके निकालने लगते हैं। करोड़ों-अरबों की कमाई, अधिकाधिक महंगे महलनुमा घर, करोड़ों की ज्वेलरी, देश-विदेश की सैर, नैतिक-अनैतिक संबंधों की कोई सीमा उन्हें दिखाई नहीं देती। जयललिता ने तमिलनाडु की जनता के लिए कई कल्याणकारी योजनाएं सरकारी खजाने से क्रियान्वित की, फिल्मों में अभिनय की बड़ी सफलताओं के बाद राजनीति में आने पर अपनों और विरोधियों से बड़ी राजनीतिक लड़ाइयां भी लड़ीं। लेकिन सत्ता में रहते हुए साम्राज्ञी की तरह मनमानी की और शशिकला एवं अन्य सहयोगियों के अवैध संपत्ति बनाने पर अंकुश नहीं लगाया। इसीलिए पहले सेशन कोर्ट ने घोषित आय से अधिक अवैध संपत्ति के आरोप में उन्हें अपराधी करार दिया। लंबी न्यायिक प्रक्रिया और कानूनी दांव-पेंच से हाई कोर्ट से राहत मिली। लेकिन मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा। वर्षों की कानूनी सुनवाई और बाद में अब शशिकला सहित दो आरोपियों को चार वर्ष की सजा एवं दस-दस करोड़ रुपयों के जुर्माने का फैसला हुआ है। जयललिता की मत्यु हो जाने से अब इन आरोपियों को सजा भुगतनी है। शशिकला तो सत्तारूढ़ अन्नाद्रमुक पार्टी में बहुमत का दावा करने के बावजूद मुख्यमंत्री नहीं बन पाईं। संभवत: वर्षों से देखा सपना एक झटके में टूट गया। अब तो वह दस वर्ष तक चुनाव भी नहीं लड़ सकेंगी। तमिलनाडु में अन्नाद्रमुक के नेता एवं उनके साथी ही नहीं द्रमुक नेताओं, पूर्व केंद्रीय मंत्रियों, पूर्व अथवा वर्तमान सांसदों आदि पर भ्रष्टाचार के मामले अदालतों में चल रहे हैं। पड़ोसी कनार्टक, आंध्र, महाराष्ट्र या बिहार, उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, जम्मू-कश्मीर जैसे विभिन्न राज्यों में नेताओं पर भ्रष्टाचार, अवैध आय-संपत्ति, हत्या-बलात्कार-सत्ता के दुरुपयोग के गंभीर मामले अदालतों में चल रहे हैं। इस दृष्टि से हाल के वर्षों में आए इस सुझाव पर न्यायपालिका, सरकार एवं संसद को गंभीरता से शीघ्र विचार करना चाहिए और सत्ताधारियों के ऐसे गंभीर मामलों पर विशेष अदालतों का गठन कर निश्चित समयावधि में फैसले की व्यवस्था होनी चाहिए। विडंबना यह है कि चार दशकों तक बहस के बाद संसद से लोकपाल कानून पारित होने के बावजूद पिछले ढाई वर्षों में लोकपाल की नियुक्ति नहीं हुई है। नियम-कानूनी प्रक्रिया तो राजनीतिक बहाना है। अण्णा हजारे के कंधों पर सवार होकर आए अरविंद केजरीवाल तक ने दिल्ली में लोकपाल का गठन नहीं किया। न्यायाधीशों एवं जनता के फैसलों की अवमानना देर सबेर संपूर्ण सजा व्यवस्था के लिए घातक साबित होगी।