बायोमेट्रिक आधार संख्या संबंधी मामले में मुख्य न्यायधीश को पत्र
भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने नोटिस जारी कर यह सूचित किया था कि 11 जनवरी, 2016 से संवैधानिक पीठ संबंधी मामलों की सुनवाई सोमवार और शुक्रवार को होगी। हैरानी की बात है कि सर्वोच्च न्यायालय के दो बार के आदेश के बाद भी साइबर बायोमेट्रिक आधार संख्या और निजता के अधिकार के मामले में अभी तक संविधान पीठ गठित नहीं की गई है।
गोपाल कृष्ण के अनुसार राज्यों में स्थित उच्च न्यायालयों में जो मुकदमें बायोमेट्रिक आधार संख्या के संबंध में दायर किए गए थे वे भी सर्वोच्च न्यायालय में ट्रांसफर हो चुके हैं। इसके जन्मदाता और पैरोकार नंदन निलेकनी ने सर्वोच्च न्यायालय के फैसले पर लिखे अपने लेख में दावा किया है कि साइबर बायोमेट्रिक आधार संख्या से सामाजिक, सियासी और आर्थिक लोकतंत्र प्राप्त किया जा सकता है। गोपाल कृष्ण के अनुसार ऐसे बेतुके दावों पर सियासी दलों और न्यायपालिका की चुप्पी बताती है कि बायोमेट्रिक डेटा को एक्सेनचर, साफ्रान और एर्न्स्ट एंड यंग जैसी विदेशी कंपनियों को भारतीयों की संवेदनशील निजी जानकरियां उपलब्ध कराने की सहमती है।
सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायधीश की पांच जजों वाली संविधान पीठ ने 13 अक्टूबर, 2015 को यह निर्देश दिया था कि उंगलियों और आंखों की पुतलियों की तस्वीर पर आधारित 12 अंको की अनूठे आधार संख्या मामले में 23 सितंबर 2013 से लेकर 11 अगस्त, 2015 तक दिए गए आदेशों का सख्ती से अनुसरण किया जाए। इस पीठ ने आधार से निजता के मूलभूत अधिकार के उल्लंघन की सुनवाई के लिए एक और संविधान पीठ के गठन का मुख्य न्यायधीश से अनुरोध किया है। गोपाल कृष्ण के अनुसार ऐसा आदेश एक ऐसी पीठ ने दिया जिसका गठन अटॉर्नी जनरल के अनुरोध पर केवल भारत सरकार के एक छोटे से आवेदन की सुनवाई के लिए किया गया था।
आर्थिक सर्वेक्षण 2011-12 कहता है, आधार परियोजना दुनिया की सबसे बड़ी बायोमीट्रिक संग्रहण और पहचान परियोजना बनेगी। उम्मीद है कि न्यायालय प्राधिकरण (युआईडीएआई) की इस स्वीकारोक्ती पर गौर करेगा, जिसमें कहा गया है कि इसमें स्वामित्व, प्रौद्योगिकी और निजता से जुड़े खतरे शामिल हैं। इसका दावा है कि इन जोखिमों को कम करने के लिए यह कुछ रणनीतियों को अपना रहा है लेकिन इसे संसद और देश के नागरिकों के साथ अब तक साझा नहीं किया गया है। संसदीय समिति का कहना है कि आधार परियोजना में उद्देश्य की स्पष्ट्ता का अभाव है और अपने क्रियान्वयन में यह दिशाहीन है, जिससे काफी भ्रम फैल रहा है। आधार के मामले में बायोमीट्रिक आंकड़ा बगैर केसी संवैधानिक या कानूनी मंजूरी के स्थायी तौर पर इकट्ठा किया जा रहा है।
गौरतलब है कि आधार और अन्य जनविरोधी नीतियों के खिलाफ पिछली सरकार में प्रधानमंत्री को 3.47 करोड़ लोगों के हस्ताक्षर वाला ज्ञापन दिया गया था। यह योजना आम आदमी की निजी जिंदगी में दखलअंदाजी है। पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने भी जब इसके कानूनी वैधता पर सवाल उठाया तो भारत सरकार के चंडीगढ़ प्रशासन ने आधार को अनिवार्य बनाने वाला अपना आदेश वापस ले लिया। 11 अगस्त, 2015 के सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद भारतीय चुनाव आयोग ने भी मतदाता पहचान पत्र को आधार से जोड़ने वाला आदेश वापस ले लिया। इसी तरह दिल्ली सरकार ने भी एक आदेश जारी कर सर्वोच्च न्यायालय के आदेश को पालन करने का आदेश दिया है।
उम्मीद है आधार के मामले में सुनवाई राष्ट्र सुरक्षा और निजता के अधिकार की सुरक्षा के मद्दे नजर ज्यादा संवेदनशील होगी। ऐसा न हो कि फैसला आते-आते हमे, भविष्य के नागरिकों और उनके नुमाइंदो को साइबर युद्ध के जंगल के अनजाने जंजाल में न छोड़ जाए।