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11 October 2017

सुप्रीम कोर्ट में केंद्र सरकार ने किया इच्छा मृत्यु का विरोध, कहा- दुरुपयोग हो सकता है

क्या किसी शख्स को ये अधिकार दिया जा सकता है कि वह यह कह सके कि कोमा जैसी स्थिति में पहुंचने पर उसे जबरन जिंदा न रखा जाए? लाइफ सपोर्ट सिस्टम हटाकर उसे मरने दिया जाए?

सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने मंगलवार से इस मामले में सुनवाई शुरू की। पीटीआइ के मुताबिक, सुनवाई के दौरान केंद्र ने कहा कि अगर इच्छा मृत्यु को मंजूरी दी गई तो इसका दुरुपयोग हो सकता है। गौरतलब है कि एक एनजीओ कॉमन कॉज ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल कर कहा था कि संविधान के आर्टिकल 21 के तहत जिस तरह नागरिकों को जीने का अधिकार दिया गया है, उसी तरह उन्हें मरने का भी अधिकार है। इस पर केंद्र सरकार ने कहा कि इच्छा मृत्यु की वसीयत लिखने की अनुमति नहीं दी जा सकती, लेकिन मेडिकल बोर्ड के निर्देश पर मरणासन्न का सपोर्ट सिस्टम हटाया जा सकता है।

सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ ने सवाल उठाया कि क्या किसी व्यक्ति को उसकी मर्जी के खिलाफ कृत्रिम सपॉर्ट सिस्टम पर जीने को मजूबर किया जा सकता है? जब सम्मान से जीने को अधिकार माना जाता है तो क्यों न सम्मान के साथ मरने को भी अधिकार माना जाए? क्या इच्छा मृत्यु मौलिक अधिकार के दायरे में आती है? सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि आजकल मध्यम वर्ग में वृद्ध लोगों को बोझ समझा जाता है। ऐसे में इच्छा मृत्यु में कई दिक्कतें हैं।

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पैसिव यूथनेशिया का समर्थन किया

एनजीओ कॉमन कॉज ने 2005 में इस मसले पर याचिका दायर की थी। कॉमन कॉज के वकील प्रशांत भूषण ने कहा कि गंभीर बीमारी से जूझ रहे लोगों को 'लिविंग विल' बनाने का हक होना चाहिए। 'लिविंग विल' के माध्यम से शख्स यह बता सकेगा कि जब वह ऐसी स्थिति में पहुंच जाए, जहां उसके ठीक होने की उम्मीद न हो, तब उसे जबरन लाइफ सपॉर्ट सिस्टम पर न रखा जाए।

प्रशांत भूषण ने स्पष्ट किया कि वह ऐक्टिव यूथनेशिया की वकालत नहीं कर रहे, जिसमें लाइलाज मरीज को इंजेक्शन दे कर मारा जाता है। वह पैसिव यूथनेशिया की बात कर रहे हैं, जिसमें कोमा में पड़े लाइलाज मरीज को वेंटिलेटर जैसे लाइफ सपॉर्ट सिस्टम से निकाल कर मरने दिया जाता है।

‘कैसे तय होगा, मरीज ठीक नहीं हो सकता'

इस पर अदालत ने सवाल किया कि आखिर यह कैसे तय होगा कि मरीज ठीक नहीं हो सकता? प्रशांत भूषण ने जवाब दिया कि ऐसा डॉक्टर तय कर सकते हैं। फिलहाल कोई कानून न होने की वजह से मरीज को जबरन लाइफ सपोर्ट सिस्टम पर रखा जाता है। कोमा में पहुंचा मरीज खुद इस स्थिति में नहीं होता कि वह अपनी इच्छा व्यक्त कर सके इसलिए उसे पहले ही ये लिखने का अधिकार होना चाहिए कि जब उसके ठीक होने की उम्मीद खत्म हो जाए तो उसके शरीर को यातना न दी जाए।

'लिविंग विल आत्महत्या की तरह'

केंद्र ने कहा कि मामले में गठित की गई कमेटी ने विशेष परिस्थितियों में पैसिव यूथनेशिया (कोमा में पड़े मरीज का लाइफ सपोर्ट सिस्टम हटाने) को सही बताया है, लेकिन लिविंग विल का सरकार समर्थन नहीं करती। ये एक तरह से आत्महत्या जैसा है। इस मामले की सुनवाई कर रही पांच सदस्यीय संविधान बेंच की अध्यक्षता चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा कर रहे हैं। इस बेंच में जस्टिस एके. सिकरी, जस्टिस एएम. खानविलकर, जस्टिस डीवाई. चंद्रचूड़ और जस्टिस अशोक भूषण शामिल हैं।  इस मामले में सुनवाई जारी है। गौरतलब है कि लगभग 35 साल से कोमा में पड़ी मुंबई की नर्स अरुणा शानबॉग को इच्छामृत्यु की इजाजत देने से सुप्रीम कोर्ट ने 2011 में इनकार कर दिया था।

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TAGS: living will, supreme court, central government
OUTLOOK 11 October, 2017
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