अल्पसंख्यकों के लिए न इंसाफ न सुनवाई
हाशिमपुरा से लेकर सिख नरसंहार, गुजरात, कंधमाल, मुजफ्फरनगर, मुजफ्फरपुर और चर्चों पर होने वाले हालिया हमले और ऐसी अनगिनत घटनाओं में न्याय एक दूर की कौड़ी बनी हुई है। पिछले एक साल में देश भर में अल्पसंख्यकों पर हमले भी तेज हुए हैं। जिससे उनके के भीतर खौफ और आक्रोश दोनों भाव जोर मार रहे हैं।
किस तरह से अकलियत पर दबाव बनाया जा रहा है इसकी बानगी पिछले दिनों दिल्ली में राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग द्वारा बुलाई गई राज्य अल्पसंख्यक आयोगों के वार्षिक सम्मेलन में देखने को मिली। इसका उदघाटन करते हुए गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने कहा, सेवा क्या धर्म परिवर्तन के लिए की जाती है। आखिर धर्मान्तरण कराने की जरूरत क्या है, जो जिस धर्म में है, उसी में रहे। उन्होंने धर्मान्तरण रोकने के लिए कानून बनाए जाने पर राष्ट्रीय बहस करने की वकालत की। यह कहकर उन्होंने हिंदुत्ववादी संगठनों द्वारा देश भर में चलाए जा रहे अल्पसंख्यकों के खिलाफ मुहिम को सरकारी संरक्षण ही नहीं दिया, बल्कि उसे ही सरकारी स्टैंड बनाया। राजनाथ सिंह ने सीधे-सीधे धमकाने वाले अंदाज में कहा कि अगर कोई देश के भौगोलिक परिदृश्य को बदलना चाहेगा तो उसे कोई कैसे बर्दाश्त करेगा। अल्पसंख्यक आयोग की बैठक में जहां देश भर में ईसाइयों और मुसलमानों पर हो रहे हमलों पर चर्चा होनी चाहिए थी, वहां उनके खिलाफ चलाए जा रहे प्रचार को सरकारी प्रश्रय दिया जा रहा था। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मोहन भागवत ने कुछ समय पहले ही मदर टेरेसा के असल मकसद को सेवा नहीं धर्म परिववर्तन बताया था। इस सम्मेलन में शामिल हुए कई सदस्य राजनाथ सिंह के बयान से बहुत नाराज भी हुए। इस सम्मेलन के एजेंडे में जो मुद्दे अल्पसंख्यक समाज को बेचैन कर रहे हैं, उनका कहीं कोई जिक्र तक नहीं था। यहां चर्चा अल्पसंख्यकों की शिक्षा और कॉरपोरेट सोशल रिस्पॉस्बिलटी को लेकर हो रही थी। इस बारे में राष्ट्रीय आयोग के चेयरमैन नसीन ने आउटलुक को बताया कि सम्मेलन का एजेंडा कई महीनों पहले तय हो जाता है इसलिए अल्पसंख्यकों पर हमलों, घर वापसी आदि पर चर्चा नहीं हुई। कई सदस्य इन मुद्दों पर बात करना चाहते थे लेकिन उन्हें मौका ही नहीं मिला। आंध्र प्रदेश की राज्य अल्पसंख्यक आयोग की सदस्य प्रभा जोसेफ ने संवाददाता को बताया कि गृहमंत्री ने सीधे-सीधे ईसाइयों पर हमला बोला है। जोसेफ ने इस बात पर हैरानी जताई कि राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग और गृह मंत्री को देश के अल्पसंख्यकों पर हमलों के खौफ पर न तो चर्चा करने का वक्त है और न ही इसके खिलाफ कोई कदम उठाने की चिंता।
इस आयोग के सदस्यों में भी गृहमंत्री के बयान को लेकर बैचेनी दिखाई पड़ी। आयोग के सदस्य प्रवीण डावर ने राजनाथ के सामने ही जब देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू और मौलाना अब्दुल कलाम को उद्धित किया तो शिरकत करने वालों ने थोड़ी राहत महसूस की। प्रवीण ने बताया कि आज खनपान से लेकर रहन-सहन, धर्म हर क्षेत्र में एक खास राजनीति का वर्चस्व बनाया जा रहा है। यह लोकतंत्र के लिए बहुत नुकसानदेय है। धर्म चुनने की आजादी तो सभी को होनी चाहिए। कांग्रेस के करीबी शहजाद पूनावाला का मानना है कि केंद्र सरकार लगातार अल्पसंख्यकों पर खौफ का साया बनाए हुए है। हमले करने वालों को ना सिर्फ बचाया जा रहा है बल्कि उनकी ही आवाज में सरकार भी बोल रही है। यह लोकतंत्र के लिए खतरनाक है।
एक बात लगभग तय नजर आ रही है कि देश भर में केंद्र सरकार और हिंदुत्वादी संगठन धर्मान्तरण के बुनियादी अधिकार के खिलाफ ध्रुवीकरण करने की तैयारी में हैं। इस मुद्दे को जितना अधिक उछाला जाएगा, विश्व हिंदू परिषद सहित बाकी हिंदुत्ववादी संगठनों द्वारा चलाए जा रहे घर वापसी कार्यक्रम को और अधिक वैधानिकता मिलेगी। इन के बीच अल्पसंख्यकों के ऊपर होने वाले हमले, अल्पसंख्यकों पर हिंसा, हिंसा के दोषियों को अभयदान की प्रक्रिया बेरोक-टोक जारी रहेगी। बाकी राज्यों की तरह ही राजस्थान में ईसाइयों-चर्चों के ऊपर हमलों में पिछले कुछ महीनों में बहुत तेजी आई है। इनमें से कई घटनाएं राजस्थान के उदयपुर जिले में जिस छोटे पैमाने पर घटित करवाई गई हैं, उससे इन पर ज्यादा चर्चा भी नहीं हुई। इन हमलों पर राजस्थान पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) ने एक अहम रिपोर्ट तैयार की है। इस रिपोर्ट में जयपुर के अलावा उदयपुर जिले में सिलसिलेवार-संगठित ढंग से ईसाई मिशनरियों पर हमलों और उन्हें इलाका-निकाला देने का जिक्र है। रिपोर्ट से उजागर हुआ कि किस तरह से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, बनवासी कल्याण परिषद,विश्व हिंदू परिषद आदि दक्षिणपंथी संगठनों ने आदिवासी ईसाइयों को निशाने पर लिया है। इसके लिए उन्होंने पूरे मामले को हिंदू आदिवासी बनाम ईसाई आदिवासी के बीच टकराव का रूप दे दिया, ताकि सीधे-सीधे वे न फंसें। पीयूसीएल ने अपनी रिपोर्ट में छह मामलों का दस्तावेज जुटाया है, जो 25 दिसंबर 2014, कानकापुरा गांव, सारदा तहसील, 2 जनवरी 2015 को बारापाल गांव, गिरवा तहसील, 14 फरवरी रतना खेता गांव, सारदा तहसील, 22 अगस्त, 2014 और 7 मार्च 2015 को चोखदा निमदी गांव, सारदा तहसील और 15 या 18 जनवरी टिडी गांव, गिरवा तहसील में घटित हुईं। इस रिपोर्ट से यह साफ होता है कि किस तरह से दक्षिणी राजस्थान में ईसाई आदिवासियों के खिलाफ हिंदू आदिवासियों को उतारकर उन पर हमला किया जा रहा है। धर्म मानने के मौलिक अधिकार का हनन करने में राज्य सरकार से लेकर स्थानीय पुलिस प्रशासन का पूरा संश्रय भी पूरा उजागर होता है। इन तमाम वारदातों पर जो चुप्पी है, वह भी कम खतरनाक नहीं है। इन तमाम घटनाओं में आदिवासी ईसाइयों को एक जगह जमा होकर प्रार्थना करने से भी रोका जाने का मामला सामने आया है। चर्च जाने से रोकना, नए साल के जश्न के लिए एक जगह जमा होने से रोकना आदि इस इलाके में सामान्य परिघटना बन गई है। इसी तरह की वारदातों से छत्तीसगढ़ अटा पड़ा है। वहां हिंदुत्ववादी संगठनों के दबाव में ईसाइयों के खिलाफ लंबे समय से अभियान चल ही रहा है।
गुजरात में 2002 में हुए नरंसहार के आरोपियों के -अच्छे दिन- आ गए हैं। दोषियों के खिलाफ न्यायिक लड़ रहीं तीस्ता सेतलवाड के अनुसार, कई जेल से बाहर आ गए हैं और कई को बरी करने की तैयारी जोर-शोर से चल रही है। नरोदा पाटिया में हुए कत्लेआम का दोषी पाई गई गुजरात की तत्कालीन मंत्री माया कोडनानी को निचली अदालत ने आजीवन कारावास की सजा 2013 में सुनाई थी और गुजरात उच्च न्यायालय ने 2014 में उन्हें स्वास्थ्य आधार पर जमानत दे कर उनकी सजा को स्थगित कर दिया गया था। अभी उनकी सजा पर उच्च न्यायालय में चल रही सुनवाई में सरकारी पक्ष ने माया कोडनानी को बेकसूर साबित करने के लिए सारा जोर लगा रखा है। नरोदा पाटिया के पीड़ितों ने अपील करने के लिए बेंच बदलने की अपील की है। इशरत जहां फर्जी मुठभेड़ के मामले में जेल में बंद पुलिस अधिकारी वंजारा ने जमानत निकलने के बाद सही ही कहा था कि, अब अच्छे दिन आ गए हैं। गुजरात नरसंहार में दोषियों के खिलाफ निर्णायक लड़ाई चलाने वाली तीस्ता सीतलवाड़ का कहना है कि एक के बाद एक दोषियों को राहत मिल रही है, यह बहुत परेशानकुन हालात है। बाबू बजरंगी को भी राजनीतिक साजिश का शिकार बताया जा रहा है। ये तमाम ऐसे मामले हैं जिनके खिलाफ पुख्ता सबूत बहुत मुश्किल से जुटाए गए थे।
कानूनी जगत से लेकर नौकरशाही, सरकारी अमला, राजनीतिक गलियारों तक में अल्पसंख्यकों की स्थिति लगातार कमजोर होती जा रही। धर्म के नाम पर हमले ही तेज नहीं हुए हैं, इन हमलो के पक्ष में पूरी बेहियायी से तर्क दिए जा रहे हैं। चाहे वह पश्चिम बंगाल में नन के साथ हुआ सामूहिक बलात्कार का मामला हो या फिर 2002 गुजरात नरसंहार के दोषियों को राहत देने का सवाल हो-तर्क अपराध के पक्ष में खुलेआम देने की राजनीतिक संस्कृति का वर्चस्व है। बहुसंख्यकवाद की संस्कृति की मार झेल रहे अल्पसंख्यकों के लिए इंसाफ की आस को जिलाए रखना एक कड़ी चुनौती होती जा रही है।