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16 September 2016

एन.जी.ओ. के धंधे पर तलवार। आलोक मेहता

इसमें कोई शक नहीं कि पिछले तीन-चार दशकों के दौरान सामाजिक क्षेत्र में ईमानदारी से काम करने वाले गांधीवादी संगठन या ऐसे ही समर्पित भाव वाले संगठनों को संसाधनों की कमी बनी रही, लेकिन बड़ी संख्या में एन.जी.ओ. बनाकर सेवा के नाम पर धंधा बढ़ता चला गया। भारत सरकार या राज्य सरकारों से ग्रामीण विकास, महिला-बाल कल्याण, पर्यावरण, शिक्षा, स्वास्‍थ्य के कार्यक्रमों के नाम पर करोड़ों रुपयों की सहायता ली गई, लेकिन कई संगठनों के पदाधिकारी संपन्न हो गए। असली प्रभावित लोगों को सहायता ही नहीं मिली।

सुप्रीम कोर्ट लगभग पांच वर्षों से एन.जी.ओ. के विवादों के मामले की सुनवाई कर रहा है। यही नहीं सी.बी.आई. से भी कहा ‌गया कि वह इनके घोटालों की जांच करके रिपोर्ट अदालत के सामने रखे। सी.बी.आई. ने प्रारंभिक रिपोर्ट में यह तो बताया कि महाराष्ट्र में पांच लाख एन.जी.ओ. रजिस्टर्ड हैं। वहीं कर्नाटक, ओड़ीसा जैसे कुछ राज्यों की सरकारें सुप्रीम कोर्ट के आदेशों का उल्लंघन कर एन.जी.ओ. पर कोई कार्रवाई ही नहीं कर रही है। कानून और न्याय की इससे बड़ी अवमानना क्या हो सकती है? इसकी वजह यह है कि विभिन्न राज्यों में नेताओं, अफसरों ने ही अपने रिश्तेदारों और नजदीकी लोगों के नाम पर एन.जी.ओ. बना रखे हैं। समाज सेवा के नाम पर वे बिल्डिंग खड़ी कर लेते हैं, देश-विदेश में सैर-सपाटे का खर्च ‘सेवा’ के खाते में डाल देते हैं। एन.जी.ओ. के नाम पर इकट्ठी की गई पूंजी से नए नेता और नए राजनीतिक दल तक खड़े हो गए। इसलिए सुप्रीम कोर्ट के कड़े रुख से देर-सबेर एन.जी.ओ. के धंधे पर रोक लगाने में सफल होने की उम्मीद करनी चाहिए।

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TAGS: NGO, alok mehta, एऩजीओ, आलोक मेहता
OUTLOOK 16 September, 2016
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