सोशल मीडिया पर भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता : सुप्रीम कोर्ट
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बरकरार रखने वाले अपने एक ऐतिहासिक फैसले में उच्चतम न्यायालय ने मंगलवार को साइबर कानून के उस प्रावधान को निरस्त कर दिया जो वेबसाइटों पर कथित अपमानजनक सामग्री डालने पर पुलिस को किसी व्यक्ति को गिरफ्तार करने की शक्ति देता था।
सोच और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को आधारभूत बताते हुए न्यायमूर्ति जे चेलमेश्वर और न्यायमूर्ति आर एफ नरीमन की पीठ ने कहा, सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम की धारा 66 ए से लोगों के जानने का अधिकार सीधे तौर पर प्रभावित होता है। खचाखच भरे अदालत कक्ष में फैसला सुनाते हुए न्यायमूर्ति नरीमन ने यह भी कहा कि यह प्रावधान साफ तौर पर संविधान में उल्लिखित अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार को प्रभावित करता है।
इस प्रावधान को असंवैधानिक ठहराने का आधार बताते हुए न्यायालय ने कहा कि प्रावधान में इस्तेमाल चिढ़ाने वाला, असहज करने वाला और बेहद अपमानजनक जैसे शब्द अस्पष्ट हैं क्योंकि कानून प्रवर्तन एजेंसी और अपराधी के लिए अपराध के तत्वों को जानना कठिन है।
पीठ ने ब्रिटेन की अलग-अलग अदालतों के दो फैसलों का भी उल्लेख किया जो अलग-अलग निष्कर्ष पर पहुंचीं कि सवालों के घेरे में आई सामग्री अपमानजनक थी या बेहद अपमानजनक थी। पीठ ने कहा, एक ही सामग्री को देखने के बाद जब न्यायिक तौर पर प्रशिक्षित मस्तिष्क अलग-अलग निष्कर्ष पर पहुंच सकता है तो कानून लागू करने वाली एजेंसियों और दूसरों के लिए इस बात पर फैसला करना कितना कठिन होता होगा कि क्या अपमानजनक है और क्या बेहद अपमानजनक है।
पीठ ने कहा, कोई चीज किसी एक व्यक्ति के लिए अपमानजनक हो सकती है तो दूसरे के लिए हो सकता है कि वह अपमानजनक नहीं हो। पीठ ने सुनवाई के दौरान राजग सरकार द्वारा दिए गए आश्वासन को खारिज कर दिया कि इस बात को सुनिश्चित करने के लिए कुछ प्रक्रियाएं निर्धारित की जा सकती हैं कि सवालों के घेरे में आए कानून का दुरपयोग नहीं किया जाएगा।