ग़ाजीपुर में बीमार हैं स्वास्थ्य केंद्र
क्या बीमारी है, उसकी दवा लिख देते हैं। नर्स ने ही दवा लिख दी। पता चला कि यह एक दिन का वाकया नहीं है बल्कि रोज ऐसे ही होता है। दूसरी ओर अस्पताल में स्थित पैथोलॉजी विभाग में ब्लड की जांच कराने गए एक व्यक्ति को पता चला कि पैथोलॉजिस्ट नहीं हैं। जांच पैथोलॉजिस्ट की देखरेख में टेक्निशियन करते हैं। पता चला कि दोनों पैथोलॉजिस्ट अवकाश पर हैं और टेक्नीशियन उन्हीं का फर्जी हस्ताक्षर बनाकर रिपोर्ट जारी कर रहे हैं।
मामला तब और गंभीर हो जाता है जब हस्ताक्षर के साथ रिपोर्ट भी गलत दी जाने लगी। इसी प्रकार पहितियां गांव के चिकित्सा केंद्र पर सुबह के दस बजे, डॉक्टर मौजूद नहीं, पूछने पर पता चला कि मरीज ही नहीं आते। इसलिए डॉक्टर साहब देर से आते हैं। यह उस जिले की तस्वीर है जहां से विकास की बात करने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार में दो केंद्रीय मंत्री और राज्य की अखिलेश यादव की सरकार में तीन कैबिनेट मंत्री शामिल हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश यानी पूर्वांचल में गंगा किनारे बसे इस पिछड़े जिले का नाम आते ही जेहन में एक ऐसी तस्वीर उभरती है कि भारतीय इतिहास में धर्म, दर्शन, कला-कौशल, शिक्षा, संस्कृति, साहित्य के साथ त्याग, बलिदान और राजनीति के क्षेत्र में अग्रणी यह जनपद स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार, सड़क के मामले में उपेक्षित क्यों है? आज भी जनपद के लोगों को अपने स्वास्थ्य सेवाओं के लिए बनारस, मऊ जिले के अस्पतालों की ओर रुख करना पड़ता है। स्थानीय लोग बताते हैं कि राजनीतिक रुप से समृद्ध इस जिले की ओर न तो सरकार का ध्यान जाता है और न ही जनप्रतिनिधियों का। आज इस जनपद से दो केंद्रीय मंत्री कलराज मिश्रा और मनोज सिन्हा हैं जबकि राज्य सरकार में कैबिनेट स्तर के तीन मंत्री कैलाशनाथ सिंह यादव, ओमप्रकाश सिंह और विजय मिश्रा के अलावा राज्य सरकार द्वारा लालबत्ती से नवाजे गए विधायक शादाब फातिमा, सुब्बा राम, सुभाष पासी आदि हैं। इतने जनप्रतिनिधियों के बावजूद जिले की बदहाल व्यवस्था से हर कोई त्रस्त है।
आउटलुक संवाददाता को भारतीय प्रतिष्ठान की ओर से शोध के लिए चयनित किए जाने के बाद इस जनपद पर जब अध्ययन किया गया तो पाया कि स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार, सड़क आदि के मामलों में काफी पिछड़ा हुआ है। चिकित्सा के मामले में यह जनपद इतना पिछड़ा है इलाज के लिए यहां के लोगों को पड़ोसी जिलों में जाना पड़ता है। अगर बाल स्वास्थ्य की बात करें तो तस्वीर और भी भयावह उभरती है। जिले में एक भी बाल चिकित्सालय नहीं है जहां बच्चों के स्वास्थ्य की देखभाल हो सके। बाल स्वास्थ्य पर निर्भरता केवल सरकार द्वारा चलायी जा रही योजनाओं पर है। उसमें भी घोर अनियमितता है। स्थानीय लोगों के मुताबिक जिला अस्पताल में मरीजों के जीवन से खिलवाड़ किया जा रहा है। अस्पताल में स्थित पैथोलॉजी विभाग से खून के जांच की गलत रिपोर्ट दी जा रही है। नीम, हकीम दलालों के चंगुल में फंसकर नवजात शिशुओं और महिलाओं की मौत हो रही है। मजेदार बात तो यह है कि जिले के एक प्राथमिक विद्यालय में करीब 50 बच्चों को गलत दवा पिला दिए जाने से उनकी हालत बिगड़ गई। प्राथमिक उपचार के लिए जिला मुख्यालय पर ले जाने की बजाय मऊ और आजमगढ़ के अस्पतालों में ले जाया गया। कारण साफ नजर आ रहा है कि जिस जगह घटना हुई वहां के जिला चिकित्सालय में उपचार के जरूरी यंत्र नहीं होने के कारण दूसरे जनपदों पर निर्भर रहना पड़ता है। लेकिन जिला प्रशासन को कोई सुध नहीं है।
जिले में कुल 13 सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र, 16 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र और 55 न्यू प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र संचालित हैं। लेकिन ज्यादातर स्वास्थ्य केंद्रों पर डॉक्टर नहीं हैं। अगर हैं भी तो समय से नहीं पहुंचते ताकि मरीजों का इलाज किया जा सके। जनपद के मुख्य चिकित्साधिकारी डा. महेंद्र प्रताप सिंह आउटलुक से बातचीत में स्वीकार करते हैं कि डॉक्टरों की कमी हैं। सिंह कहते है कि यहां के लोगों में स्वास्थ्य के प्रति जागरुकता की कमी है। इसलिए यहां के लोग नीम-हकीम के चक्कर में ज्यादा रहते हैं। सरकारी योजनाओं के बारे में डा. सिंह का कहना है कि राज्य और केंद्र सरकार की जो भी योजनाएं हैं उसका संचालन ठीक तरीके से किया जा रहा है। लेकिन बड़ा सवाल यह है कि योजनाओं का अगर संचालन हो तो समस्याएं कहां से आएगी। स्थानीय निवासी रंजन कुमार बताते हैं कि जिले में जो रोजगार के साधन थे वह बंद हो गए। एशिया की सबसे बड़ी अफीम की फैक्ट्री बदहाल है। जिले की एकमात्र चीनी मिल बंद हो चुकी है। स्थानीय लोग अपने जनप्रतिनिधियों के प्रति उपेक्षा का भाव रखते हैं। इसलिए तो कहते हैं कि जिस जिले का रेल मंत्री हो वहां रेल का संचालन ठीक से नहीं हो रहा। जिस जिले से सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्योग मंत्री हों वहां उद्योग बंद हो रहे हैं। ऐसे में जिले के विकास की कल्पना को लेकर लोग आशंकित हैं।