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15 December 2019

गांव बदहाल मंदी बेलगाम

भारत की अर्थव्यवस्था से जुड़े हाल में आए इन तथ्यों पर गौर कीजिए। सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की वृद्धि दर डेढ़ साल से हर तिमाही में नीचे जा रही है। जुलाई-सितंबर 2019 के दौरान विकास दर 4.5 फीसदी रह गई, जो साढ़े छह साल में सबसे कम है। रिजर्व बैंक ने 2019-20 के लिए विकास का अनुमान घटाकर पांच फीसदी कर दिया, जबकि इस साल के लिए इसका पहला अनुमान 7.4 फीसदी का था। केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय (सीएसओ) के अनुसार जुलाई-सितंबर 2019 में इकोनॉमी में निवेश में सिर्फ एक फीसदी की बढ़ोतरी हुई, जो 19 तिमाही में सबसे कम है। पिछले महीने रिजर्व बैंक के कंज्यूमर कॉन्फिडेंस सर्वेक्षण में लोगों ने कहा कि अर्थव्यवस्था की खराब होती हालत के कारण वे अपने गैर-जरूरी खर्चे घटा रहे हैं। उन्हें नौकरियां जाने की भी चिंता है। दूसरी तरफ, कंपनियां भी भविष्य को लेकर चिंतित हैं। अप्रैल-जून तिमाही में उन्होंने अपनी क्षमता का 73.6 फीसदी इस्तेमाल किया था, जो जुलाई-सितंबर में घटकर 68.9 फीसदी रह गया। ऑटो कंपोनेंट बनाने वाली कंपनियों के संगठन एक्मा ने बताया कि उनकी क्षमता का इस्तेमाल तो 50 फीसदी पर आ गया है, जो कभी 80 फीसदी हुआ करता था। इन कंपनियों में नया निवेश नहीं हो रहा है और मांग घटने के कारण छह महीने में एक लाख लोगों की नौकरियां गई हैं।

ये आंकड़े देश की अर्थव्यवस्था की हकीकत को बयां कर रहे हैं। सच तो यह है कि हालात दिनोदिन गंभीर हो रहे हैं, और इसकी एक बड़ी वजह है ग्रामीण इलाकों की लगातार खराब होती स्थिति। एक तरफ कहीं सूखा और कहीं भारी बारिश के चलते किसानों की फसलें बर्बाद हो रही हैं, तो दूसरी तरफ उन्हें उपज की पूरी कीमत नहीं मिल रही है। 2005 से 2014 के दौरान कृषि क्षेत्र की जीडीपी सालाना औसतन 3.7 फीसदी की दर से बढ़ी थी, लेकिन यह 2014 से 2019 के दौरान घटकर 2.9 फीसदी रह गई। लेबर ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार कृषि में मजदूरी बढ़ने की दर 2015-16 से 2018-19 के दौरान आधी से भी कम रह गई। दूसरी तरफ उनके लिए महंगाई बढ़ने की दर इसकी तुलना में कई गुना ज्यादा रही। 2019 में तो खेतिहर मजदूरों के लिए महंगाई दर हर महीने बढ़ रही है और अक्टूबर में यह 8.11 फीसदी पर पहुंच गई। आमदनी की तुलना में महंगाई ज्यादा बढ़ने का सीधा मतलब है कि लोगों के पास खर्च करने के लिए पैसे नहीं रह गए। ग्रामीण इलाकों में लोगों के पास दूसरे विकल्प भी कम ही होते हैं। वहां मजदूरों को खेतों में काम नहीं मिलता है तो वे मनरेगा में काम तलाशते हैं, जहां हर परिवार को साल में कम से कम 100 दिन काम मिलने की गारंटी है। लेकिन 2017-18 में मनरेगा में प्रति परिवार 45.8 दिनों का और 2018-19 में सिर्फ 38 दिनों का काम मिला। काम के दिन घटने की एक वजह भी है। 2015-16 में मनरेगा के बजट का करीब 86 फीसदी मजदूरी के लिए था, लेकिन यह हिस्सा हर साल घट रहा है। 2019-20 में मनरेगा के बजट का सिर्फ 59 फीसदी मजदूरी के लिए रखा गया है।

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नीति आयोग के रिसर्च पेपर ‘चेंजिंग स्ट्रक्चर ऑफ रूरल इकोनॉमी ऑफ इंडियाः इम्प्लिकेशंस फॉर एम्पलॉयमेंट एंड ग्रोथ’ (भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था का बदलता ढांचाः रोजगार एवं विकास के निहितार्थ)के अनुसार देश की 68.8 फीसदी आबादी और 72.4 फीसदी वर्कफोर्स ग्रामीण इलाकों में ही रहती है। इसका मतलब है कि आबादी और वर्कफोर्स का बड़ा हिस्सा अर्थव्यवस्था में कमजोरी से सीधे प्रभावित है। जब इतने बड़े हिस्से की कमाई नहीं बढ़ेगी तो अर्थव्यवस्था में मांग आखिर कैसे निकलेगी। राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (एनएसओ) के जिस सर्वे को सरकार ने खारिज किया, उसके मुताबिक 2011-12 से 2017-18 के दौरान ग्रामीण इलाकों में खर्च 8.8% घट गया। हकीकत तो यह भी है कि इस दौरान शहरों के विपरीत ग्रामीण इलाकों में गरीबी में इजाफा हुआ है। एनएसओ के अनुसार, 2011-12 से 2017-18 के दौरान गांवों में गरीबी दर (गरीबी रेखा से नीचे की आबादी का प्रतिशत) लगभग चार फीसदी बढ़ी है। यह 25.7 फीसदी से बढ़कर 29.6 फीसदी हो गई, जबकि शहरों में 13.7 फीसदी से घटकर 9.2 फीसदी रह गई। पूरी आबादी में ग्रामीण आबादी ज्यादा है, इसलिए पूरे देश की गरीबी दर 2011-12 में 21.9 फीसदी से बढ़कर 2017-18 में 22.8 फीसदी हो गई।

लेबर ब्यूरो के आंकड़ों से पता चलता है कि 2004-05 से 2011-12 के दौरान ग्रामीण इलाकों में आमदनी में तेजी से बढ़ोतरी हुई, लेकिन इसके बाद इसमें गिरावट आई। नवंबर 2011 में ग्रामीण इलाकों में मजदूरी बढ़ने की दर 20 फीसदी पर पहुंच गई थी, लेकिन सितंबर 2019 में यह 2.05 फीसदी रह गई। जाने-माने अर्थशास्‍त्री और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से सेवानिवृत्त प्रोफेसर अरुण कुमार नोटबंदी को इसकी बड़ी वजह मानते हैं। आउटलुक से बातचीत में उन्होंने कहा, “नोटबंदी के बाद असंगठित क्षेत्र में काम करने वालों की आय में भारी कमी आई, जिसका असर ग्रामीण क्षेत्र में सीधे तौर पर हुआ है। इसमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि जब लोगों की आय गिरेगी तो खर्च भी घटेगा। हर साल 15 वर्ष से ज्यादा उम्र के करीब 15 लाख युवा संगठित क्षेत्र में नौकरियों की तलाश करते हैं, लेकिन पिछले एक दशक में बहुत कम नौकरियां पैदा हुई हैं। बल्कि, नई नौकरियां पैदा होने के बजाय उनमें गिरावट आ रही है। इससे लोगों में हताशा बढ़ रही है।”

क्यों आई यह स्थिति

दरअसल, 2014-15 से लगातार प्राकृतिक और सरकार-निर्मित ऐसी परिस्थितियां बनीं, जिनसे हालात बिगड़ते गए। पहले तो 2014 और 2015 में मानसून की बारिश कम हुई। 2016 की शुरुआत में यह साफ हो गया था कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था संकट में है। इसके बाद नवंबर 2016 में लागू नोटबंदी ने अनौपचारिक क्षेत्र के साथ-साथ ग्रामीण अर्थव्यवस्था की भी कमर तोड़ दी। अर्थव्यवस्था इससे उबरी भी नहीं थी कि जुलाई 2017 में वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) लागू कर दिया गया। जीएसटी को अप्रत्यक्ष करों में सबसे बड़ा सुधार बताया गया, लेकिन जल्दबाजी में लागू इस नई टैक्स व्यवस्था ने अनौपचारिक क्षेत्र को लगभग ठप कर दिया। खेती और इससे जुड़े काम नहीं मिलने पर मजदूर काम की तलाश में शहरों में आते हैं, और अनौपचारिक क्षेत्र में ही काम करते हैं। लेकिन नोटबंदी और जीएसटी से यह क्षेत्र बर्बाद हुआ तो उन्हें यहां भी काम मिलना बंद हो गया। तब लोग वापस गांव जाकर महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी (मनरेगा) में काम तलाशने लगे। सरकारी आंकड़े ही इस बात की गवाही देते हैं। ग्रामीण विकास मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने पिछले दिनों लोकसभा में बताया कि 2014-15 में इस योजना में 6.22 करोड़ लोगों को काम मिला था, जो 2018-19 में 7.77 करोड़ हो गया। यानी इस दौरान इसमें 25 फीसदी का इजाफा हुआ। यही नहीं, बीते चार वर्षों के दौरान 18 से 30 साल की उम्र के 2.7 करोड़ युवा मनरेगा से जुड़े। इससे युवाओं में बेरोजगारी का भी अंदाजा होता है।

वित्त मंत्रालय के पूर्व सलाहकार मोहन गुरुस्वामी कहते हैं, “भारतीय अर्थव्यवस्था में असंगठित क्षेत्र रोजगार का सबसे बड़ा साधन है, लेकिन नोटबंदी के बाद इस क्षेत्र पर सबसे ज्यादा चोट पड़ी है। ऐसे में स्थिति और बिगड़ती जा रही है। मेरा अनुमान है कि बेरोजगारी दर पुराने 6.1 फीसदी के उच्चतम स्तर से भी ज्यादा हो चुकी है। हम गंभीर स्थिति में पहुंचते जा रहे हैं और इसकी सबसे ज्यादा मार ग्रामीण इलाकों पर पड़ी है। इसी वजह से मनरेगा में काम की मांग बढ़ गई है। शहरों में रोजगार नहीं है और लोग अपने घरों को लौटने लगे हैं।”

मांग पर असर

लोगों की आमदनी घटने का असर तमाम चीजों की मांग पर दिख रहा है। ग्रामीण इलाकों में साबुन-तेल जैसे एफएमसीजी उत्पादों की बिक्री को लोगों की आमदनी का अंदाजा लगाने का एक प्रमुख संकेत माना जाता है। डाटा रिसर्च फर्म नीलसन की रिपोर्ट के अनुसार, सितंबर तिमाही में ग्रामीण इलाकों में एफएमसीजी की बिक्री बढ़ने की दर सात साल के निचले स्तर पर पहुंच गई। जुलाई-सितंबर तिमाही के दौरान ग्रामीण इलाकों में मूल्य के लिहाज से खपत पांच फीसदी बढ़ी, जबकि एक साल पहले इसमें 20 फीसदी बढ़ोतरी हुई थी। इस दौरान शहरी इलाकों में एफएमसीजी की खपत में वृद्धि 14 फीसदी की तुलना में आठ फीसदी रही। एफएमसीजी पर कुल खर्च में ग्रामीण भारत का हिस्सा अमूमन 36 फीसदी होता है। पारंपरिक रूप से देखें तो इसमें ग्रोथ की दर शहरी इलाकों की तुलना में तीन से पांच फीसदी ज्यादा होती है। लेकिन पहली बार ग्रामीण इलाकों की वृद्धि दर शहरों से कम रही।

ग्रामीण अर्थव्यस्था की स्थिति को बताने वाला एक और आंकड़ा होता है ट्रैक्टर की बिक्री का। वहां भी कमोबेश यही हाल है। ट्रैक्टर एंड मेकेनाइजेशन एसोसिएशन (टीएमए) के अनुसार, इस साल सिर्फ जनवरी में घरेलू बाजार में ट्रैक्टर की बिक्री में बढ़ोतरी दर्ज की गई, वह भी 2.4 फीसदी। उसके बाद हर महीने पांच फीसदी से लेकर 16 फीसदी तक गिरावट दर्ज की गई है।

सरकारी उपायों में अनदेखी

क्रिसिल रेटिंग एजेंसी के मुख्य अर्थशास्‍त्री डी.के. जोशी के अनुसार, ग्रामीण इलाकों में चलने वाली सरकारी योजनाएं भी प्रभावित हुई हैं। प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना के तहत पिछले वित्त वर्ष में हर दिन 56 किलोमीटर सड़कें बन रही थीं, वह गिरकर 35 किलोमीटर पर आ गई हैं। प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत बनने वाले घरों की संख्या भी प्रति वर्ष आठ लाख से गिरकर 31 हजार पर आ गई। इन सबके असर से ही आमदनी गिरती जा रही है।

अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए सरकार ने अभी तक जो कदम उठाए हैं, उनमें कंपनियों के लिए इनकम टैक्स की दर घटाना, हाउसिंग सेक्टर के लिए 25,000 करोड़ रुपये का पैकेज, दिवालिया कानून में बदलाव, सरकारी बैंकों का विलय और सरकारी कंपनियों का विनिवेश जैसे उपाय शामिल हैं। वैसे तो इन उपायों का अभी तक अर्थव्यवस्था पर कोई असर नहीं दिखा है, फिर भी इनमें एक भी उपाय ऐसा नहीं जिससे ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूती मिले। भारत की जीडीपी और निजी खपत में लगभग 50 फीसदी योगदान करने वाली ग्रामीण अर्थव्यवस्था की अनदेखी करने पर यही अंजाम होना था। दरअसल, मौजूदा सरकार की नीतियों का पूरा फोकस महंगाई और राजकोषीय घाटा कम रखने पर है, और सरकार इसमें कामयाब भी रही। जून 2017 में तो महंगाई दर 1.54 फीसदी के रिकॉर्ड निचले स्तर पर पहुंच गई। लेकिन इसका असर यह हुआ कि किसानों की आमदनी नहीं बढ़ी। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने पिछले दिनों कहा कि अर्थव्यवस्था को सुधारने के लिए और कदम उठाए जाएंगे। लेकिन अब तक के संकेतों से यही लगता है कि इस बार भी फोकस इंडिया ही होगा, भारत नहीं।

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नोटबंदी के बाद असंगठित क्षेत्र में काम करने वालों की आय में भारी कमी आई, जिसका असर ग्रामीण क्षेत्र पर पड़ा है

प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना और आवास योजना के तहत बनने वाली सड़कों और घरों की संख्या भी काफी कम हो गई है

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प्याज ने बिगाड़ा सबका जायका

सरकारें गिराने की कूव्वत रखने वाले प्याज के दाम रिकॉर्ड ऊंचाई पर हैं। इसकी सबसे अधिक पैदावार वाले राज्य महाराष्ट्र की थोक मंडियों में भाव 150 रुपये और खुदरा बाजार में 180 रुपये किलो तक पहुंच गए। हालांकि इससे किसानों को कोई लाभ नहीं मिला, क्योंकि उनसे तो वही 8-10 रुपये के भाव पर खरीदा गया था। दाम कम करने के लिए सरकार प्याज आयात कर रही है, जिसके जनवरी में बाजार में पहुंचने की संभावना है। लेकिन उसी समय लेट (देर से आने वाली) खरीफ की फसल भी आएगी। यानी तब भी किसानों को ऊंची कीमतों का लाभ नहीं मिल सकेगा। इससे पहले अक्टूबर-नवंबर में बेमौसम बारिश और बाढ़ के कारण महाराष्ट्र के कई इलाकों में खेतों में ही प्याज की फसल सड़ गई। तब भी किसानों को काफी नुकसान हुआ।

स्वाभिमानी शेतकारी संगठन के नेता और पूर्व सांसद राजू शेट्टी ने आउटलुक को बताया कि सरकार समय रहते नुकसान का आकलन नहीं कर पाई। दाम सितंबर में बढ़ने लगे थे। तभी आयात का फैसला होता तो नवंबर में आयातित प्याज आ जाता। अब यह जनवरी में आएगा। महाराष्ट्र, कर्नाटक और मध्य प्रदेश में लेट खरीफ फसल भी उसी समय आएगी। उस समय दाम कम होंगे जिसका नुकसान किसानों को होगा।

प्याज का 60 से 65 फीसदी उत्पादन रबी में और बाकी 35 से 40 फीसदी खरीफ और लेट खरीफ में होता है। खरीफ की फसल की रोपाई जुलाई-अगस्त में और खुदाई अक्टूबर से दिसंबर के दौरान होती है। लेट खरीफ की फसल जनवरी में आएगी। फसल खराब होना दाम में तेजी का फौरी कारण भले हो, लेकिन इसकी और वजहें भी हैं। प्याज का रकबा लगभग स्थिर है। आबादी बढ़ने के कारण मांग तो हर साल बढ़ रही है, लेकिन उत्पादन में उतनी वृद्धि नहीं हो रही। ऐसा इन्फ्रास्ट्रक्चर भी नहीं है कि प्याज को पूरे साल संभाल कर रखा जा सके। इसे ज्यादा से ज्यादा 60 दिनों तक रख सकते हैं। उसके बाद इसमें अंकुर निकलने लगता है और नमी कम होने लगती है। कार्टेलाइजेशन भी दाम में तेजी का बड़ा कारण है। इसी वजह से थोक और खुदरा बाजार की कीमतों का अंतर काफी ज्यादा होता है। दाम पर अंकुश लगाने के लिए विदेश व्यापार महानिदेशालय (डीजीएफटी) ने 13 सितंबर को प्याज का न्यूनतम निर्यात मूल्य (एमईपी) बढ़ाकर 850 डॉलर प्रति टन कर दिया और 30 सितंबर को निर्यात पर रोक लगा दी। फिर भी दाम नहीं रुके तो 21 नवंबर को 1.2 लाख टन प्याज आयात की अनुमति दी गई। जमाखोरी रोकने के मकसद से सरकार ने थोक विक्रेताओं के लिए प्याज की स्टॉक सीमा 50 टन से घटाकर 25 टन और खुदरा विक्रेताओं के लिए दस टन से घटाकर दो टन कर दी है, लेकिन खरीदारों को सस्ते प्याज के लिए अभी इंतजार करना पड़ेगा।

आर.एस. राणा

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TAGS: village, worse, recession uncontrolled
OUTLOOK 15 December, 2019
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