कर-व्यवस्था में नई क्रांति
दुनिया के विकसित देशों से प्रतियोगिता के दौर में विभिन्न राज्यों में वस्तुओं और सेवाओं पर अलग-अलग कर दरों से संपूर्ण अर्थव्यवस्था प्रभावित हो रही थी। जिस कांग्रेस पार्टी ने सर्वदलीय संसदीय समिति की सिफारिशों के अनुरूप वस्तु एवं सेवा कर विधेयक लाने का प्रयास किया था, प्रतिपक्ष में आने के बाद दो वर्षों तक तकनीकी आधार पर अटकाए रखा। भारतीय जनता पार्टी भी अपने पुराने रवैये से बनाए एक वर्ग विशेष के समर्थकों को तत्काल विचलित नहीं करना चाहती थी। उसी ने प्रतिपक्ष में रहकर नई कर-व्यवस्था के संबंध में व्यापारी वर्ग में भ्रम फैलाए थे। एक लॉबी प्रदेशों में सक्रिय रही। यही नहीं सत्ता में आने के बाद उसने राज्यों के हितों की उपेक्षा कर केंद्र का पलड़ा भारी रखने वाला प्रारूप पेश कर दिया।
मतलब राजनीतिक खींचातानी में निहित स्वार्थी तत्वों को लाभ होता रहा। दुनिया के अधिकांश विकासशील देशों की अर्थव्यवस्था इसी तरह की कर प्रणाली से चलती है। हां, भारत के विभिन्न राज्यों की सामाजिक-आर्थिक समस्याएं उन देशों से भिन्न हैं। इसलिए राष्ट्रीय स्तर पर जीएसटी लागू होने के बाद केंद्र को बिना किसी पूर्वाग्रह के राज्यों को उनका हिस्सा देना होगा। योजना आयोग के विघटन के बाद वैसे ही राज्यों को जाने वाला बजट केंद्र की कृपा पर अधिक निर्भर हो गया है। इसी तरह नई कर-व्यवस्था से मुद्रास्फीति न बढ़ने देने की जिम्मेदारी भी केंद्र सरकार की होगी। जीएसटी संविधान संशोधन विधेयक संसद में पारित होने से सेंट्रल एक्साइज ड्यूटी और स्टेट वैल्यू एंड टैक्स समेत सभी अप्रत्यक्ष कर संयुक्त रूप से लिए जाएंगे।
इससे संपूर्ण भारत के बाजार में करों की एकरूपता होगी और प्रारंभिक पांच वर्षों में प्रदेश सरकारों को रहने वाले घाटे की भरपाई केंद्र सरकार करेगी। यही नहीं केंद्र-राज्य के बीच विवाद निपटाने के लिए एक जीएसटी परिषद रहेगी। लोकतांत्रिक जर्मनी हो या अमेरिका अथवा कम्युनिस्ट शासित चीन, प्रादेशिक स्वायत्तता के साथ उनके सामाजिक-आर्थिक हितों की रक्षा ही उन्हें सुदृढ़ बनाती है। हाल के वर्षों में राजनीतिक कटुता और टकराव ने पारस्परिक विश्वास खत्म किया है। समय रहते, राष्ट्रीय मुद्दों पर राजनीतिक दलों को व्यापक हितों की दृष्टि से सर्वानुमति बनाना चाहिए।