मीडिया पर पाबंदी का नया दौर
केंद्र सरकार के हाल के दो फैसलों को देखें तो उसकी यह मंशा साफ हो जाती है कि सरकार की नकारात्मक खबरें किसी भी तरह मीडिया तक नहीं पहुंचे। पहला फैसला तो यही है कि किसी भी सरकारी विभाग का कोई अधिकारी मीडिया से सीधे बात नहीं करेगा। उस विभाग का प्रवक्ता ही मीडिया से बात करने के लिए अधिकृत होगा। यानी अब किसी खबर के सिर्फ सरकारी पक्ष से ही आप अवगत हो सकेंगे। हालांकि यह आदेश देते समय केंद्रीय गृह मंत्रालय शायद यह भूल गया कि किसी अधिकारी को अगर कोई खबर मीडिया में लीक करनी होगी तो वह सबको बताकर तो करेगा नहीं। नकारात्मक खबरें हमेशा चुपचाप ही लीक की जाती हैं और यह आगे भी होता ही रहेगा।
दूसरा महत्वपूर्ण फैसला है जेलों में बंद कैदियों से पत्रकारों, एनजीओ कार्यकर्ताओं और फिल्मकारों के मिलने पर पाबंदी। दिल्ली के निर्भया रेप केस के आरोपी से ब्रिटिश फिल्मकार लेसली उडविन की मुलाकात और डाक्यूमेंट्री के निर्माण से हुई किरकरी के बहाने अब सरकार ने यह निर्णय लिया है कि इस तरह की फिल्मों के निर्माण की अब अनुमति ही नहीं दी जाएगी। न ही पत्रकारों को जेलों में कैदियों से मिलने दिया जाएगा। हालांकि जेलों का मामला राज्यों में राज्य सरकारों के अधीन होने के कारण उन्हें यह सुझाव दिया गया है कि कुछ विशेष अवसरों को छोड़कर वह भी इस पाबंदी को लागू करें। जो विशेष अवसर बताए गए हैं उनमें सरकारों द्वारा अपनी उपलब्धियां दिखाने के लिए पत्रकारों को खुद जेल में आमंत्रित करना शामिल है। इसके अलावा अगर पत्रकार विशेष अनुमति चाहते हैं तो इसके लिए उनसे एक लाख रुपये बतौर जमानत राशि जमा कराने का सुझाव दिया गया है। यानी न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी। केंद्र सरकार का यह फैसला उस वक्त आया है जब जेल में बंद कैदियों के साक्षात्कार की कई घटनाएं सामने आईं।
गृह मंत्रालय में संयुक्त सचिव कुमार आलोक ने सभी प्रांतों और केंद्र शासित राज्यों को भेजे परामर्श में कहा, किसी भी व्यक्ति, प्रेस, एनजीओ, कंपनी को जेल के भीतर शोध करने, डाक्यूमेंटी बनाने, लेख लिखने अथवा साक्षात्कार करने के मकसद से प्रवेश की इजाजत सामान्य रूप से नहीं दी जानी चाहिए। बहरहाल, राज्य सरकारें इजाजत दे सकती हैं अगर प्रशासन महसूस करता है कि कोई डॉक्यूमेंटरी, लेख, शोध सामाजिक प्रभाव अथवा जेल सुधार के लिए है।
लेकिन ऐसे निर्देश जारी करते समय सरकार शायद यह भूल गई कि आलोचनात्मक खबरों, डाक्यूमेंट्री आदि से व्यवस्था में सुधार की गुंजाइश बनती है। अगर आप आलोचना का मौका ही छीन लेंगे तो लोकतंत्र को दम तोड़ते कितना वक्त लगेगा?