उत्तराखंड: जोर पकड़ता भूमि कानून का मुद्दा
उत्तराखंड में एक नया जुमला उछला है, ‘लैंड जिहाद’। राज्य गठन के समय से ही दूसरे प्रदेश के लोगों का उत्तराखंड में जमीन खरीदना मुद्दा रहा है, इधर कुछ लोगों को लगने लगा कि उत्तराखंड से स्थानीय शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं और बाहरी लोग यहां जमीन खरीद रहे हैं दरअसल, उन्हें दिक्कत खास समुदाय के लोगों के जमीन खरीदने से है। इसकी शुरुआत भाजपा नेता अजेंद्र अजय के मुख्यमंत्री को पत्र लिखने से हुई। पत्र में उन्होंने आग्रह किया कि पर्वतीय क्षेत्र को ‘विशेष क्षेत्र’ अधिसूचित कर खास समुदाय के धर्मस्थल निर्माण पर रोक लगाई जाए और जमीन खरीद-बिक्री के लिए विशेष प्रावधान किए जाएं। इसके बाद मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने सभी जिलों के डीएम और एसएसपी को एहतियाती कदम उठाने के निर्देश दिए हैं। भूमि कानून में संशोधन के लिए पूर्व मुख्य सचिव सुभाष कुमार की अध्यक्षता में समिति भी बनी है। अजय भी इस समिति के सदस्य बनाए गए हैं।
आउटलुक से बातचीत में अजय ने कहा, “अनेक मामले सामने आए जिनमें अनुसूचित जाति के गरीबों की जमीन एक समुदाय विशेष के लोगों ने बेहद कम दाम में खरीद ली। उन जमीनों पर वे धार्मिक स्थल बना रहे हैं।” उन्होंने बताया कि समिति को 160 सुझाव मिले हैं। आगे कई स्थानों पर जनसुनवाई होगी और सियासी दलों से भी बात की जाएगी। उसके बाद सरकार को रिपोर्ट देंगे। कांग्रेस नेता हरीश रावत का कहना है, “समुदाय विशेष को टारगेट कर राजनीतिक फायदा उठाने की कोशिश चिंताजनक है।”
इस विवाद के बहाने उत्तराखंड में भूमि कानून मुद्दा एक बार फिर जोर पकड़ने लगा है। मौजूदा कानून के विरोधियों का तर्क है कि इस कानून से बाहरी लोगों का प्रदेश की जमीनों पर कब्जा हो जाएगा। हालांकि एक वर्ग अपनी जमीन मनचाहे दाम पर मनचाहे शख्स को बेचने की आजादी की वकालत करता है। विरोधियों का तर्क है कि प्रदेश में 2018 में संशोधन के जरिए जमीन खरीद-फरोख्त के नियम इतने लचीले कर दिए गए कि अब कोई भी पूंजीपति प्रदेश में चाहे जितनी जमीन खरीद सकता है। कानून की धारा 143(क) में प्रावधान है कि पहाड़ में उद्योग लगाने के लिए भूमिधर स्वयं भूमि बेचे या उससे कोई भूमि खरीदे तो भूमि को अकृषि कराने के लिए अलग प्रक्रिया नहीं अपनानी होगी। औद्योगिक प्रयोजन से भूमि खरीदने पर भू उपयोग स्वत: बदल जाएगा। धारा 154 के अनुसार कोई भी किसान अधिकतम 12.5 एकड़ जमीन का ही मालिक हो सकता था। इससे ज्यादा जमीन पर सीलिंग थी। लेकिन त्रिवेंद्र सरकार ने 12.5 एकड़ की सीमा खत्म करने के साथ किसान होने की अनिवार्यता भी खत्म कर दी। धारा 156 में संशोधन कर 30 साल के लिए लीज पर जमीन देने का प्रावधान भी किया गया है।
9 नवंबर 2000 को उत्तराखंड के अलग राज्य बनने के बाद पहली अंतरिम सरकार के मुख्यमंत्री नित्यानंद स्वामी पर आरोप है कि उन्होंने शिक्षण, सामाजिक एवं अन्य संस्थाओं को कौड़ियों के भाव बेशकीमती जमीन बांटी। वर्ष 2002 के बाद एनडी तिवारी सरकार ने पहली बार राज्य से बाहर के व्यक्तियों के लिए भूमि खरीद की 500 वर्ग मीटर की सीमा तय की। वर्ष 2007 में भाजपा की सरकार बनी तो तत्कालीन मुख्यमंत्री जनरल (सेनि.) बीसी खंडूड़ी ने इसे घटाकर 250 वर्ग मीटर कर दिया। वर्ष 2018 में तत्कालीन मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने औद्योगिक निवेश को बढ़ावा देने के लिए भूमि कानून में संशोधन कराया। इसके तहत चिन्हित सेक्टर में अन्य राज्यों के उद्यमी 12.50 एकड़ से अधिक भूमि खरीद सकते थे। उत्तराखंड में कृषि भूमि का रकबा निरंतर घट रहा है। अब यह केवल नौ प्रतिशत के आसपास रह गया है। बादल फटना, भू स्खलन आदि तमाम प्राकृतिक आपदाओं के लिहाज से पहाड़ अत्यंत संवेदनशील हैं। इसलिए उत्तराखंड को अन्य पर्वतीय राज्यों की तरह एक सशक्त भूमि कानून की आवश्यकता है। राज्य में अधिकतर बसावट भूस्खलन जोन पर है। हर वर्ष सरकार को कुछ गांवों को विस्थापित करना पड़ता है। लेकिन सरकार हमेशा भूमि का रोना रोती है। जहां भूमि है, वह ढालदार है। लोग चाहते हैं, हिमाचल की तरह उत्तराखंड का भी भूमि कानून सख्त हो।